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________________ (६२) पृच्छन्त्यरण्य वासास्तं नगरं तात कीदृशम । परं नगर वस्तूनामुपमाया अभावतः ॥१५८॥ न शशाकतमां तेषा गदितुं स कृतोद्यमः । एवमत्रोपमाभावात् वक्तुं शक्यं न तत्सुखम् ॥ १६॥ वह दृष्टान्त इस प्रकार है- कोई साधारण पुरुष सुखपूर्वक जंगल में रहता था। एक समय किसी राजा को उसका घोड़ा विपरीत चलेकर वन ले आया । राजा को देखकर उसने उसका यथोचित सत्कार किया और उसको वापिस नगर में पहुंचा दिया। राजा ने भी उसको प्रत्युपकारार्थ अपने नगर में रखा। अपना उपकारी समझकर उसका सम्मान किया और उत्तम प्रकार के भोजन आदि वैभव से उसे संतुष्ट किया। नागरिकों ने भी उसका सत्कार किया। वहां रहकर वह राजमहल के झरोखे और मनोहर उद्यानों में विलासिनी स्त्रियों के साथ में सुख भोगते रहने लगा। एक समय वर्षा ऋतु के दिन आए । उसमें आकाश के विषय में मेघाडम्बर तथा मृदंग के समान मधुर टहुका करते मोर को नृत्य करते देखकर उसे अपने पूर्व के अरण्य में जाने की दृढ़ उत्कंठा जागृत हुई। अतः राजा ने भी उसे जाने की आज्ञा दी और वह अपने वन में गया। वहां वनवासियों ने उसे पूछा 'भाई! नगर कैसा था ?' परन्तु उस नगर की वस्तुओं की कोई भी उपमा वन में नहीं दिखने से वह किसी भी प्रकार से नगर सुख का वर्णन नही कर सका । इसी तरह उपमा के अभाव से सिद्ध के सुखों का भी वर्णन करना अशक्य है। (१५२ से १५६) सिद्धा बुद्धा गताः पारं परं पारंगता अपि । सर्वा मनागतामद्धां तिष्ठन्ति सुखलीलया ॥१६०॥ बुद्ध अर्थात् ज्ञानी और पारंगत सिद्ध के जीव परम्परा से सर्व भविष्य काल में भी सुख और आनंद में रहते हैं । (१६०) अरू वा अपि प्राप्तरूप प्रकृष्टा,... अनंगा स्वयं ये त्वनंग द्रुहोऽपि । अनन्ताक्षराश्चोज्झिता शेष वर्णाः । . स्तुमस्तान् वचोऽगोचरान् सिद्ध जीवान् ॥१६१॥ सिद्धों के जीव का रूप नहीं होने पर, मोक्ष पद प्राप्त करने से उत्कृष्ट रूप वाले हैं, अशरीर होने पर अनंग का द्रोह करने वाले, अनन्ताक्षर अर्थात् अनंत अक्षर
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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