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________________ ३२ श्री गुणानुरागकुलकम् सकतीं। जिनाज्ञा एक अमूल्य रत्न है, अतएव आज्ञा की आराधना से ही सब कार्य सिद्ध होते हैं और उसी के प्रभाव से सब जगह विजय प्राप्त होती है। यहाँ पर स्वाभाविक प्रश्न उठ सकता है कि - जिनेन्द्र भगवान् की सर्वमान्य आज्ञा क्या है ? इसका उत्तर यह है कि - किं बहुणा इह जह जह, रागद्दोसा लहू विलिज्जति। तह तह पवट्टियव्वं, एसा आणा जिणिंदाणं ॥१॥ भावार्थ - आचार्य महाराज आदेश करते हैं कि हे शिष्य ! बहुत कहने से क्या लाभ है ? इस संसार में जिस-जिस रीति से राग और द्वेष लघु (न्यून) होकर विलीन हों, वैसी-वैसी प्रवृत्ति करनी चाहिये, ऐसी जिनेन्द्र भगवान् की हितकर आज्ञा है। अर्थात् - जिस प्रवृत्ति का उपाय से राग-द्वेष की परिणति कम पड़े, उसी में दत्तचित्त रहना चाहिये। क्योंकि - "राग-द्वेष दो बीज से, कर्मबन्ध की व्याध” अर्थात् - राग और द्वेष इन दोनों बीज़ से कर्म बंधरूप व्याधि होती हैं और नाना प्रकार के वैर विरोध बढ़ते हैं। इससे जिनेश्वरों ने सबसे पहले राग-द्वेष को कम करने की आज्ञा दी है, किन्तु गुणानुराग बिना, राग-द्वेष कम नहीं होते और राग-द्वेष के कम हुए बिना आत्मा में किसी गुण का प्रभाव नहीं पड़ सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि - पढ़ना, तप करना, दान देना, क्रियाकांड, साँचवना इत्यादि बातें तो सहज हैं, परन्तु दूसरों के गुणों पर प्रमुदित हो, उनका अनुमोदन करना बहुत ही कठिन बात है। इसमें कारण यह है कि - दूसरों के गुणों पर अनुरागी होना अभिमान दशा को समूल छोड़े बिना नहीं बन सकता, किन्तु अभिमान, को छोड़ना अत्यंत दुष्कर है। इससे गुणानुराग का धारण करना अति दुर्लभ माना जाता है, क्योंकि - गुणानुराग की सुगंधि उसी जगह आ सकती है, जहाँ अहंकार रूप दुर्गंधि नहीं आती हो।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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