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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् इसलिये जब तक अहंकार, परपरिवाद, वैर, कलह, और मात्सर्य आदि दोषों से मन को रोक कर परगुणानुरागी न बनाया जायगा, तब तक पठन-पाठनादि से कुछ भी लाभ नहीं हो सकता। संसार में मुख्यतया जितनी विद्याएँ या कलाएँ उपलब्ध हैं, उनको पढ़ लिया और शास्त्रावगाहन करने में सुरगुरु को भी चकित कर दिया तथा वाद-विवाद करके अनेक जयपताकाएँ भी संग्रहित करली और दर्शनों की युक्ति प्रयुक्ति समझ कर सर्वमान्य भी बन गये, परन्तु जो सब सुखों का कुल भवन एक गुणानुराग नहीं सीखा, तो वे सब व्यर्थ है, क्योंकि ये सब योग्यताएँ गुणानुराग से ही शोभित होती हैं। अगर विद्या पढ़ने पर भी दूसरों के दोष निकालने की खराब आदत न मिटी तो वह विद्या किस काम की , यदि तपस्या करने पर भी शांतिभाव न आया तो वह तपस्या किस काम की ? और दान देने से आत्मा में आनन्द न हुआ तो वह दान भी किस काम का ? अर्थात् सब कामों की सिद्धि गुणानुराग के पीछे होती है, इसलिये एक गुणानुराग महागुण को ग्रहण करने का ही विशेष प्रयत्न रखना चाहिए। क्योंकि - गुणानुराग पूर्वक स्वल्प शिक्षण भी विशेष फलदायक होता है। लिखा भी है कि - : 'थोवं पि अणुट्ठाणं, आणपहाणं हणेइ पावभरे। लहुओ रविकरपसरो, दहदिसितिमिरं पणसेई ॥१॥ ___ भावार्थ - आज्ञा प्रधान थोड़ासा भी अनुष्ठान अनेक पाप समूहों का नाश करता है; जैसे - छोटा भी सूर्यकिरणों का जत्था (समूह) दस दिशाओं में व्याप्त अंधकार का विनाश करता है। शास्त्रकारों के मत से धर्म का अभ्युदय, आत्मोन्नति, शासनप्रभावना आदि कार्यों में सफलता जिनाज्ञा के बिना नहीं हो
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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