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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् गुणग्रहण करता है, वह अपनी आत्मा को स्वयं सद्गुणी बनाता है क्योंकि - गुणी जनों के गुणों का पक्षपात करने वाला पुरुष इस भव और परभव में शरद ऋतु के चन्द्रकिरणों की तरह अत्युज्ज्वल गुण समूह का स्वामी बनता है। कारुण्य भावनादीनेष्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम्। प्रतीकारपरा बुद्धिः, कारुण्यमभिधीयते ॥१२०॥ भावार्थ - दीन, पीड़ित, भयभीत और जीवित की याचना करने वाले मनुष्यादि प्राणियों के दुःखों को प्रतीकार (उपाय) करने की जो बुद्धि हो, उसका नाम ‘कारुण्य भावना' है। विवेचन - दुःखि प्राणियों के दुःख हटाने में प्रयलशील रहना मनुष्य का मुख्य कर्त्तव्य हैं। जो लोग दया के पात्र हैं, उनके दुःखों को यथाशक्ति मिटाने वाला पुरुष भवान्तर में अनुपम सुखसौभाग्य का भोक्ता होता है, इसलिये दीन, हीन, पीड़ित और भयभीत प्राणियों को देखकर धर्मात्मा पुरुषों को दयाचित्त रहना चाहिये। क्योंकि - जिसके हृदय भवन में कारुण्यभावना स्थित है, वह पुरुष सबको सन्मार्ग में चलाने के लिये कटिबद्ध रहता है। कई एक लोग किसी को शिक्षा देते समय लोगों की निन्दा और उनके अवगुण प्रकट करते हैं, परन्तु ऐसा करने से कोई सद्गुणी नहीं बन सकता। संसार में सर्वगुणी वीतराग भगवान् के सिवाय दूसरा कोई प्राणी नहीं है, कोई अल्प दोषी है, तो कोई विशेष दोषी। इससे प्राणिमात्र के दोषों पर दृष्टि न डाल कर उन्हें शांतिपूर्वक सुधारने की चेष्टा रखना चाहिये, जिससे कि वे सन्मार्ग में प्रवृत्ति कर सकें। अतएव प्रत्येक समय और प्रत्येक अवस्था में कारुण्यभाव रखकर
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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