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श्री गुणानुरागकुलकम्
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भावार्थ - सम्पूर्ण दोषों को हटा कर सूक्ष्म विचार से वस्तुतत्त्व को अवलोकन करनेवाले मनुष्यों के गुणों पर जो पक्षपात रखना वह 'प्रमोद भावना' कही जाती है।
विवेचन संसार में सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य, स्थैर्य, प्रियभाषण, परोपकार आदि सद्गुणों से विभूषित जो लोग हैं, उनके गुणों पर पक्षपात रखना चाहिये, क्योंकि उनके गुणों का पक्षपात करने से आत्मा सद्गुणी बनती है। जो लोग गुणी जनों के गुणों का बहुमान करते हुए उनकी प्रशंसा बढ़ा कर आत्मा को पवित्र बनाते हैं, वे स्वयं गुणवान् होते हैं ।
किसी के अभ्युदय को देखकर अमर्ष (ईर्ष्या) करने के समान संसार में कोई पाप नहीं है। वस्तुतः देखा जाय तो गुणद्वेषी मनुष्य महानिन्दनीय कर्म बाँध कर संसारकान्तार में पशु की तरह परिभ्रमण करता रहता है और अनन्त जन्म-मरण आदि दुःख सहन करता है। बुद्धिवान पुरुषों को हर एक कार्य करते हुए विचारना चाहिये - यह कार्य वर्त्तमान और अनागत काल में लाभ कारक मालूम होगा या नहीं ? अगर लाभकारक मालूम पड़ता हो, तो उस कार्य में हस्ताक्षेप करना चाहिये । यदि हानि होती हो, तो उससे अलग रहना चाहिये। अतएव महानुभावों ! परदोषों को देखना छोड़ो और .. गुणीजनों के गुणों को देख कर हृदय से आनन्दित रहो। कहा भी है कि -
लोओ परस्स दोसे, हत्थाहत्थि गुणे य गिण्हंतो । अप्पाणमप्पण च्चिय, कुणइ सदोसं च सगुणं च ॥
भावार्थ - जो मनुष्य दूसरों के दोषों को ग्रहण करता है, वह अपनी आत्मा को अपने ही आत्मा से दोषवाला बनाता है और जो स्वयं दूसरों के