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________________ पद की विधि समर्थ आचार्य भगवन्तों ने शास्त्र में लिखी उस अनुसार प्रारंभ हुई - क्रिया पूर्ण कर आचार्य श्री ने प्रवर्तिनी पद का वासक्षेप डाला वह दृश्य सुहाना, उत्साह, उमंग एवं आनन्द से जय-जयकार से आकाश गुंजायमान हो गया। फिर गच्छीय परंपरा के अनुरूप श्रमण भगवान महावीर के शासन का नियम है, उस अनुसार आद्य श्री सुधर्मस्वामी व श्री जंबुस्वामी श्री भद्रबाहुस्वामी, वृद्धदेवसूरि, रविप्रभसूरि, देवेन्द्रसूरि, रत्नशेखरसूरि, विजय कल्याण सूरि, विजय प्रमोदसूरि यह पूर्वाचार्य के कुल नाम ७३ हैं, किन्तु यहां समयसमय पर प्रभाविक आचार्य भगवन्त ने अपनी प्रतिभा से संघ व शासन के हित में कार्य किए उनका स्मरण कर रहा है। परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद्विजय प्रमोदसूरिजी म. आहोर में विराजित थे, वह दादा गुरुदेव भगवन्त कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमदविजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. के गुरु थे। उन्होंने आचार्य पद मुनिप्रवर श्री रत्नविजयजी को देकर श्री राजेन्द्रसूरीजी नाम से घोषित किया। पट्टालंकार आचार्य देव श्रीमद् विजयभूपेन्द्रसूरिजी म., पट्टादित्य व्याख्यान वाचस्पति आचार्यदेव श्रीश्रीश्री १००८ श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरिजी म. तत्त्पट्टे शासन प्रभावक आचार्य देव कविरत्न सौम्य मूर्ति श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज वर्तमान आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज, त्रिस्तुतिक श्रीसंघ की प्रथम गुरुणीजी श्री अमरश्रीजी. विद्याश्रीजी. मनोहर श्रीजी श्रीमा. श्रीजी, की शिष्या श्री भावश्रीजी वर्तमान आचार्य श्री की आज्ञा से कोटिगण वज्ररशाखा चन्द्रकुल वर्तमान आचार्य श्री हेमेन्द्रसूरिजी श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छ त्रिस्तुतिक समुदाय आद्य C:\Rajgad\Man.pm5
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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