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________________ २४० श्री गुणानुरागकुलकम् है, उनको उपदेश में निष्पक्षपात और सद्गुणों का मुख्य सिद्धान्त रहता है। शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि - सव्वंनाणुनायं, सव्वनिसेहो व पवयणे नत्थि। आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकंखिव्व वाणिआ ॥१॥ भावार्थ - तीर्थङ्करों के प्रवचन में सर्व बात का निषेध अथवा आज्ञा नहीं है किन्तु लाभाकांक्षी वणिक की तरह लाभ और अलाभ की तुलना- करे ऐसी आज्ञा है। अर्थात् जिस प्रकार वणिक लाभाऽ लाभ विचार कर, जिसमें अधिक लाभ जान पड़ता है उसमें प्रवृत्ति करता है। उसी प्रकार बुद्धिमान मनुष्यों को हर एक कार्य करते समय लाभाऽलाभ का विचार कर लेना चाहिए, ऐंसी तीर्थङ्कर प्रवचन की आज्ञा है। तीर्थक्करों का कथन राजा और रंक, मित्र और शत्रु, सब के . लिए समान रूप से आदरणीय होता है। क्योंकि - जहाँ सत्य, न्याय और दया का सिद्धान्त मुख्य है और जिसमें राग, द्वेष और स्वार्थ पोषण नहीं है उसके उपदेश और कथन का कौन अनादर कर सकता है? तीर्थङ्करों का उपदेश और सिद्धान्त प्रमाण तथा नयों से अवाधित और स्याद् वाद से शोभित है अतएव वह सर्वमान्य होता है। इसी से गुणानुरागधारियों के लिए तीर्थङ्कर पद प्राप्ति रूप फल बतलाया गया है। __महानुभावों ! यदि जीवन को सुखमय बनाना हो, अनन्त अनुत्तर और निरावरण कैवल्य ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र को प्राप्त करना हो, भूमंडल में आदर्श और पूज्यपाद की चाहना हो तो गुणानुराग धारण करो। ईर्ष्या, द्वेष और कलह को अपनी आत्मा में स्थान मत दो, दोषदृष्टि का परित्याग करो और मैत्रीभाव से सब के साथ बर्ताव रखों।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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