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________________ २३९ श्री गुणानुरागकुलकम् ३७. सद्गुणों में अति आवश्यक गुण निराभिमान और नम्रता है। अतिनम्र मनुष्य दूसरों की हुई भूल के लिए स्वयं प्रसन्न न होकर अत्यन्त दिलंगीर होगा और अभिमानी की बजाय निरभीमानी मनुष्य दुःखों को अधिक धैर्य से सहन कर सकेगा। ३८. हम कहाँ से आए? हमें कहाँ जाना है? और हमारे कृतकर्मों का हिसाब किसके पास देने का है? इन तीन बातों का खूब बारीकी से मनन किया जाएगा तो पाप कीचड़ में फँसने का टाइम अभी न आवेगा। ३९. मनुष्य बाह्य अस्पर्श्य वस्तुओं से अभड़ाता नहीं है, परन्तु दृष्ट विचार, खून, व्याभिचार, बलात्कार, चोरी, खोटी, साक्षी और परनिन्दा से अभड़ाता है। . . ४०. सत्य के लिए भूख -तृषा सहन करने वाला, महान कष्ट उठाने वाला, मनुष्य ही भाग्यवान और नसीबदार है, वही वास्तविकता सत्य के प्रभाव से एक दिन परमात्मा का रूप धारण कर संसार का भला करता है। ... ४१. किसी का खून न करो, व्याभिचार से दूर रहो, खोटी साक्षी कभी न भरो, और दुष्ट लोगों की संगति से बचते रहो। यही ऊँचे शिखर पर चढ़ने का असली रास्ता है और इसी रास्ते पर चलने वाले को लोग परमात्मा मानते हैं। जो मनुष्य उक्त शिक्षाओं को मनन करके अपने हृदय में धारण करता है अथवा इन गुणों के जो धारक हैं उन पर अनुराग रखता है उसे ग्रन्थकार के कथनानुसार "श्रीसोमसुन्दरपद" अर्थात् तीर्थङ्कर पद प्राप्त होता है। तीर्थङ्करों की क्षमा और मैत्री सर्वोत्कृष्ट होती है, उनकी हार्दिक भावना सब जीवों को शासन रसिक बनाने की रहती
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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