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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् २३७ अमत्सरी और निष्कपट होते हैं। जिन साधनों के लिए लोग छल कपट किया करते हैं उनकी उन्हें आवश्यकता ही नहीं होती। २८. जो मनुष्य ज्ञान से तृप्त होता है उसको किसी सुख के मिलने की कभी इच्छा नहीं होती। वह तो अपने ज्ञानरूपी सुख को ही सदा सुख समझता है और उसी से सन्तुष्ट और तृप्त रहता है। वह अपने ज्ञान से अपने को अशोचनीय समझता है और शोक करते हुए या संसार के जाल में फंसे हुए मनुष्यों को शोचनीय समझता .. २९. लक्ष्यहीनता और निर्बलता का त्याग करने से और एक विशेष उद्देश्य को स्थिर कर लेने से मनुष्य उन श्रेष्ठ पुरुषों के पद को प्राप्त करता है जो अपनी असफलताओं को सफलता की सीढ़ी बनाते हैं, जो प्रत्येक बाह्यावस्थाओं को अपना दास बना लेते हैं, जो दृढ़ता से विचार करते हैं, निर्भय होकर यत्न करते हैं, और विजयी की भांति कदम बढ़ाते हैं। ३०. सावधानी और धैर्यपूर्वक अभ्यास करने से शारीरिक निर्बलता वाला मनुष्य अपने को बलवान कर सकता है और निर्बल विचारों का मनुष्य ठीक विचार करने के अभ्यास से अपने विचारों को सबल बना सकता है। ३१. जिसे साधारण उद्देश्यों में सफलता प्राप्त करनी है उसे साधारण स्वार्थों का ही त्याग करना होगा और जिसे महान उद्देश्यों में सफलता प्राप्त करनी है उसे महान स्वार्थों को त्याग करना होगा। जितना ऊँचा चढ़ना है उतनी ही ऊँची सीढ़ी की आवश्यकता है और जितनी उन्नति करनी है उतना ही निःस्वार्थी बनना होगा।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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