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श्री गुणानुरागकुलकम् मनुष्य शोभा के क्षेत्र से बहिष्कृत है, उसे शोभा और मान किसी स्थान पर नहीं प्राप्त होता। जरा नीचे के दृष्टान्त पर दृष्टिपात करिये- '.
किसी समय धारानगरी पति भोजनृपति ने अपनी सभा के श्रृङ्गारभूत और सर्वशास्त्र-विचारविचक्षण पाँच सौ पंडितों से यह प्रश्न पूछा कि - 'संसार में जो गुणहीन पुरुष हैं, उन्हें किस के समान समझना चाहिए?' तब उनमें से धनपाल पंडित ने यह कहा कि -
"येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। .. ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः, मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति ॥१॥" . .
भावार्थ - जिनके विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील, गुण और धर्म नहीं . है वे पुरुष मर्त्यलोक में इस पृथ्वी पर भारभूत हैं और मनुष्यरूप से मृग के सदृश विचरते हैं। अर्थात् जो लोग संसार में अवतार लेकर विद्या नहीं पढ़ते . अथवा तपस्या नहीं करते, किंवा हीन दीन और दुःखियों को सहायता नहीं देते, एवं आचार-विचार और वीर्यरक्षा नहीं करते और सहनशीलता आदि सद्गुण नहीं धारण करते और आत्मधर्म में नहीं रमण करते, उनको यथार्थ में मनुष्य आकार में मृग ही समझना चाहिए। जिस प्रकार मृग घास खाकर अपने जीवन को पूरा करता है, वैसे ही गुणहीन मनुष्य भी खा पीकर अपने अमूल्य और दुष्प्राप्य जीवन को खो देता है।
पंडितों की बात सुनकर किसी दूसरे पंडित ने मृग का पक्ष लेकर कहा कि - सभा में नीति विरुद्ध बोलना बिल्कुल अनुचित है। निर्गुणी मनुष्य को मृग सदृश समझना भारी भूल है, क्योंकि मृगों में तो अनेक प्रशस्य गुण होतेहैं। देखिये - गायन सुनाने वालों को शिर, लोगों को मांस, ब्रह्मचारियों को चर्म, योगियों को सींग, मृग लोग देते हैं और स्त्रियों को उनके ही नेत्रों की उपमा दी जाती है, इसी से स्त्रियाँ 'मृगाक्षी' कहलाती है। तथा मृगों की कस्तूरी