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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् २१९ है । इसलिए स्वगच्छ या परगच्छस्थित गुणी मुनिजनों को प्रेम दृष्टि से देखना सीखो, जिससे कि आत्मा पवित्र बने । गुणों के बहुमान से गुणों की सुलभता - गुणरयणमंडियाणं, बहुमाणं जो करेइ सुद्धमणो । सुलहा अन्नभवम्मि य, तस्स गुणा हुंति नियमेणं ॥ २७॥ गुणरत्नभण्डितानां बहुमानं यः करोति शुद्धमनाः । सुलभा अन्यभवे च तस्य गुणाः भवन्ति नियमेन ॥ २७ ॥ ) शब्दार्थ - (य) और (जो ) जो पुरुष (सुद्धमणो ( पवित्र मन होकर (गुणरयणमंडियाणं) गुणरूप रत्नों से सुशोभित पुरुषों का (बहुमाणं) बहुमान आदर (करेइ) करता है (तस्स) उसके (गुणा) गुण (अन्नभवम्मि) दूसरे भव में (नियमेणं) निश्चय से (सुलहा ) सुलभ (हुंति) होते हैं। - भावार्थ - जो पुरुष गुणवान् पुरुषों का शुद्ध मन से बहुमान करता है उसे सद्गुण दूसरे भव में नियम से सुलभ होते हैं, अर्थात् सुगमता से मिलते हैं। विवेचन - जितनी शोभा सदगुणों से होती है उतनी बाह्य आभूषण, वस्त्र आदि से नहीं हो सकती । यद्यपि संसारगत मनुष्य शरीर शोभा के लिए उत्तम उत्तम प्रकार के रत्न और मुक्ताओं से जुड़े हुए हार आदि अलंकार धारण करते हैं और सुन्दर-सुन्दर कोट पाटलून आदि पहनते हैं किन्तु उनसे उनकी वास्तविक शोभा उतनी नहीं होती, जितनी कि सद्गुणी पुरुषों की होती है। संसार में रत्न सब से अधिक बहुमूल्य होता है, लेकिन गुणरूप रत्न तो उससे भी अधिक महर्ध्य है। यहाँ तक कि रत्नों का मूल्य तो अंकित हो सकता है परन्तु गुणरूप रत्नों का मूल्य अंकित नहीं हो सकता । गुणहीन
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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