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________________ २१२ श्री गुणानुरागकुलकम् पुरुष विद्यमान हैं, हाँ इतना तो कहा जा सकता है कि पूर्व समय ... की अपेक्षा इस समय न्यूनता तो अवश्य है। अतएव इस दुःषम समय में जिस पुरुष में अल्प भीगुण हो तो उसकी हृदय से प्रशंसा करना चाहिए, क्योंकि प्रशंसा से मानसिक दशा पवित्र रहती है और सद्गुणों की प्रभा बढ़ती है। पुरुष चाहे किसी मत के आश्रित क्यों न हो, परन्तु उसमें मार्गानुसारी आदि धार्मिक गुण प्रशंसा के लायक है। पूर्वकालीन इतिहास और जैन शास्त्रों के निरीक्षण करने से यह स्पष्ट मालूम होता . है कि पूर्व समय के विद्वान गुणानुरागी अधिक होते. थे, वे साम्प्रदायिक आग्रहों में निमग्न नहीं थे, जैसे कि वर्तमान समय में पाए जाते हैं। हरिभद्र और हेमचन्द्र जैसे विद्वत्समाजशिरोमणि : आचार्यों ने स्वनिर्मित ग्रन्थों में भी अनेक जगह 'तथा चोंक्त महात्मना व्यासेन' तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः' 'भगवता महाभाष्यकारेणावस्थापितम्' इत्यादि शब्दों द्वारा पतञ्जलि और वेदव्यास आदि वैदिकाचार्यों की प्रशंसा की है। वास्तव में विद्वान लोग सत्यग्राही होते हैं, उन्हें जहाँ सत्य देख पड़ता है उसे वे आदर और बहुमानपूर्वक ग्रहण कर लेते हैं और जो जितने अंश में प्रशस्य गुणवाला होता है, उतने अंश में उसकी सादर प्रशंसा किया करते हैं। पूर्वाचार्यों के प्रखर पाण्डित्य से आज समस्त भारत वर्ष आश्चर्यान्वित हो रहा है, यह पाणिडत्य उनमें गुणानुराग से ही प्राप्त हुआ था। जो लोग.दोषदृष्टि को छोड़कर गुणानुरागी हो जाते हैं उनकी मानसिक शक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि सांसारिक आपत्तियाँ भी उसे बिल्कुल नहीं सता सकतीं। जरा जेम्सएलन का वाक्य सुनिये -
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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