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श्री गुणानुरागकुलकम् के ज्ञान का नाश होते देर नहीं लगती। अतएव बुद्धिमानों को शिथिलाचारियों की प्रशंसा और निन्दा न करनी चाहिये, परन्तु यथार्थ वस्तुस्थिति का प्रतिपादन करने में हरकत नहीं है। ___ "संसार का विचित्र ढंग है, इसमें नाना मतिशाली पुरुष विद्यमान हैं। कोई नीतिज्ञ, कोई कर्मज्ञ, कोई मर्मज्ञ, कोई कृतज्ञ है, तो कोई त्रिकालगत पदार्थों का विवेचन करने में निपुण है और कोई . अद्वितीय शास्त्रज्ञ है, परन्तु स्वदोषों को जानने वाले तो कोई विरले ही पुरुष हैं। बृहस्पति जो कि देवताओं के गुरु कहे जाते हैं, उनसे भी वह पुरुष अधिक बुद्धिवान समझा जाता है, जो कि अपने में स्थित दोषों को ठीक-ठीक जानता है और उनको दूर करने में प्रयत्नशील बना रहता है। जब मनुष्य इस बात का अनुभव करता । है कि मुझ में जो जो त्रुटियाँ और अपवित्रताएँ हैं, उन्हें मैंने ही स्वयं उत्पन्न किया है और मैं ही उनका कर्ता और उत्तरदाता हूँ, तब उसे उन पर जय प्राप्त करने की आकाँक्षा होती है और किस तरह से उसे सफलता हो सकती है, वह मार्ग भी उसे प्रगट हो जाता है। इस बात का भी उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि मैं कहाँ से आया हूँ
और कहाँ मुझे जाना है। निन्दा में उन्मत्त हुए मनुष्य के लिए कोई मार्ग सरल और निश्चित नहीं है। उसके आगे-पीछे बिलकुल अंधकार ही है। वह क्षणिक सुखों के अन्वेषण में रहता है और समझने और जानने के लिए जरा भी उद्योग नहीं करता। उसका मार्ग अव्यक्त, अनवस्थित, दुःखमय और कंटकमय होता है, उसका हृदय शांति से कोसों दूर रहता है।"
संसार में सब कोई स्वयं किए हुए शुभाऽ शुभ कर्मों के स्वयं उत्तर दाता है, ऐसा समझकर अधमाऽधम पुरुषों की निन्दा और