SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री गुणानुरागकुलकम् गुणों की प्रशंसा कर हृदय को पवित्र करना चाहिये। परमार्थ सिद्धि के लिये पवित्र हृदय की ही आवश्यकता है, धर्म शब्द की व्याख्या करते हुए श्रीमान् श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने 'पुष्टिशुद्धिमच्चित्तं धर्मः' पवित्र विचारों से पुष्ट हुआ अंत:करणं ही धर्म है, अर्थात् हृदय की पवित्रता को ही धर्म माना गया है। - गुण प्रेमी पुरुष धर्म का मर्म सुमगता से समझ सकता है। ग्रन्थकारों ने लिखा है कि - जो कल्याण की इच्छा रखने वाला, गुणग्राही, सत्य प्रिय, विनीत, निर्मायी, जितेन्द्रिय, नीतिमान्, स्थिर चित्त, विवेकवान्, धैर्यवान्, धर्माभिलाषी और बुद्धिमान हो, उसी को धार्मिक मर्म समझाना चाहिये, क्योंकि उक्त गुणवाला मनुष्य धार्मिक रहस्यों को भले प्रकार समझकर शास्त्रीय नियमों को स्वयं पालन करता है और दूसरों को भी पालन कराता है, परन्तु अन्तःकरण की श्रद्धा तथा गुण-प्रेमी हुए बिना धार्मिक तत्वों को समझने का साहस करना आकाशकुसुमवत् है। ... स्वाभाविक हृदय की पवित्रता अन्तर्हेतुओं को पुष्ट करने वाली और औन्नत्य दशा पर चढ़ाने वाली होती है। इस भारत भूमि के एक कोणे में अनेक विद्वान जन्म लेकर विलय हो चुके हैं और अब भी हो रहे हैं, लेकिन प्रशंसा उन्हीं की है, जो स्वानुभव के योग से अंतरङ्ग प्रेम रखकर गुण प्रशंसा करने में अपने अमूल्य समय को व्यतीत करने में उद्यत हैं। शास्त्रकार महर्षियों का तो यहाँ तक कहना है - 'निर्दोष चरित्रवान् और सिद्धांतपारगामी होने पर भी यदि चित्तवृत्ति निन्दा करने की तरफ आकर्षित हो, तो उसे मोक्ष सुख का रास्ता मिलना दुर्घट है और जो शिथिलाचारी हैं, परन्तु वह गुणानुरागी हैं, तो उसे शिवसख मिल जाना कठिन नहीं है।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy