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श्री गुणानुरागकुलकम्
"यथावदतिथौ साधौ, दीने च प्रतिपत्तिकृत् । • सदाऽनभिनिविष्टश्च, पक्षपाती गुणेषु च ॥७॥"
भावार्थ - १८. - १९. अंतिथि, साधु और दीन में यथा योग्य भक्ति करने वाला गुणी बनने लायक होता है, जिन्होंने तिथि और दीपोत्सवादि पर्व का त्याग किया है, उनको अतिथि और दूसरों को अभ्यागत कहना चाहिये। 'साधुः सदाचारर:' उत्तम पञ्च महाव्रत पालन रूप सदाचार में लीन रहते हैं, वे 'साधु' और त्रिवर्ग को साधन करने में जो असमर्थ हैं, वे 'दीन' कहे जाते हैं। इन तीनों की उचितता पूर्वक भक्ति करना चाहिये, अन्यथा अधर्म होने की संभावना है, क्योंकि पात्र को कुपात्र और कुपात्र को पात्र की पंक्ति में गिनने से अधर्म की उत्पत्ति होती है। नीतिकारों का कहना है कि - ..
नीति रूप काँटा है, जिसके एक पलड़े में औचित्य (उचितता) और दूसरे पलड़े में करोड़ गुण रक्खे जायँ तो उचितता वाला पलड़ा नीचे नमेगा; अर्थात् करोड़ गुण से भी उचितता अधिक है, अतएव उचितता प्रमाणे भक्ति करना उत्तम है। . - २०. 'सदाऽनभिनिविष्टश्च' - निरन्तर आग्रह नहीं रखने वाला पुरुष गुण ग्रहण करने योग्य होता है। आग्रही मनुष्य स्वमति कल्पना के अनुसार युक्तियों को खींचता है और अनाग्रही पुरुष सुयुक्तियों के अनुसार स्वमति (बुद्धि) को स्थापित करता है। जगत में सुयुक्तियों से कुयुक्ति अधिक है, कुयुक्ति सम्पन्न मनुष्य अपरिमित हैं, परन्तु सुयुक्ति सम्पन्न तो विरले ही हैं। जहाँ आग्रह नहीं होता, वहाँ सुयुक्तियों का आदर होता है। इस वास्ते गुणेच्छुओं को नित्य आग्रह रहित रहना चाहिये, जिससे सद्गुणों की प्राप्ति हो।
२१. 'पक्षपाती गुणेषु च' - गुणों में पक्षपात रखने वाला पुरुष उत्तम गुणोपार्जन कर सकता है, अर्थात् सौजन्य, औदार्य,