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श्री गुणानुरागकुलकम्
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भावार्थ - आमदानी से आधा भाग अथवा आधे भाग से अधिक धर्म में लगाना चाहिये और शेष द्रव्य से सांसारिक तुच्छ (विनाशी) कार्य करना चाहिये। -यदि आमदानी के प्रमाण में धर्म न करे, किन्तु संचयशील बना रहे, तो वह पुरुष कृतनि है, क्योंकि जिस धर्म के प्रभाव से सुखी, धनी और मानी बनते हैं उस धर्म के निमित कुछ द्रव्य न खर्च किया जाय, तो कृतघ्नीपन ही है। किसी कवि ने लिखा भी है कि - लक्ष्मीदायादाश्चत्वारो, धर्माग्निराजतस्कराः ।
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ज्येष्ठपुत्रापमानेन, कुप्यन्ति बान्धवास्त्रयः ॥ १ ॥
अर्थात् लक्ष्मी के धर्म, अग्नि, राजा और चोर ये चार दाय भागी पुत्र हैं। सबसे बड़ा और माननीय पुत्र धर्म है। धर्म का अपमान होने से तीनों पुत्र कपित हो जाते हैं, अर्थात् धर्महीन मनुष्य की लक्ष्मी अग्नि, राजा और चोर विनाश करते हैं। इसी से शास्त्रकारों ने धर्म में चौथा भाग, आधाभाग अथवा आधे से अधिक जितना खर्च करते बने, उतना खर्च करने के लिए ही 'समधिक' पद लिखा है।
अतः लाभार्थी पुरुषों को कृपणता छोड़कर आमदानी के . अनुसार खर्च करने में उद्यत रहना चाहिये। ऐसा कौन मनुष्य है, जो चञ्चल लक्ष्मी से निश्चल धर्मरत्न को प्राप्त न करे ?
१३. 'वेषं वित्तानुसारतः ' - वित्त (धन) के अनुसार से वेष रखना चाहिये, जिससे संसार में प्रमाणिकता समझी जाय। जो द्रव्यानुसार पोशाक नहीं रखते वे लोक में उडाऊ, चोर और जार समझे जाते हैं, अर्थात् लोग कहते हैं कि यह 'धनजीसेठ' बना फिरता है, तो क्या किसी को ठगकर या चोरी करके द्रव्य लाया है ? अथवा किसी को ठगने के लिये बन-ठन के जाता है। इसी प्रकार द्रव्यसंपत्ति रहते भी अनुचित वेष न रखना चाहिये, क्योंकि द्रव्यवान्