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________________ १६९ श्री गुणानुरागकुलकम् स्वयं पर-स्त्रियों को भगिनी अथवा मातृ समान समझें ४, इन चार हेतुओं को लक्ष्य में रखने से पति-पत्नी के बीच में स्नेह भाव का अभाव नहीं हो सकता। अतएव समान कुल शील और भिन्न गोत्रवालों के साथ विवाह संबंध करने वाला पुरुष सूखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। "पापभीरुः प्रसिद्धं च, देशाचारं समाचरन् । अवर्णवादी न क्कापि, राजादिषु विशेषतः ॥२॥" भावार्थ - ४. पापभीरु - प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अपायों (कष्टों) के कारणभूत पापकर्म से डरने वाला पुरुष गुणी बनता है। चोरी, परदारागमन, द्यूत आदि प्रत्यक्ष कंष्ट के कारण हैं, क्योंकि इनसे व्यवहार में राजकृत अनेक विडम्बना सहन करना पड़ती हैं। मद्य मांसादि अपेय, अभक्ष्य पदार्थ प्रत्यक्ष कष्ट के कारण हैं और इनके सेवन से भवान्तर में नरकादि अशुभ गतियों में नाना दुःख प्राप्त होते हैं। .. ५. प्रसिद्ध च देशाचारं समाचरन् - अर्थात् प्रसिद्ध देशाचार का आचरण करना। यानी उत्तम प्रकार का बहुत काल से चला आया, जो भोजन, वस्त्र आदि का व्यवहार उसके विरुद्ध नहीं चलना ' चाहिये, क्योंकि देशाचार के विरुद्ध चलने से देश निवासी लोगों के साथ विरोध बढ़ता है और विरोध बढ़ने से चित्त की स्वस्थता ठीक नहीं रहती, जिससे धार्मिक साधन में चित्त की स्थिरता नहीं रहती। इसी से कहा जाता है कि - देशाचार का पालन करने में दत्तचित्त रहने वाला पुरुष ही सदगुणी बन सकता है। ६. "अवर्णवादी न क्कापि, राजादषु विशेषतः। अर्थात् नीच से लेकर उत्तम मनुष्य पर्यन्त किसी की भी निन्दा न करना चाहिये, क्योंकि निन्दा करने वाला मनुष्य संसार में निन्दक के नाम से प्रख्यात होता है और भारी कर्मबंधन से भवान्तर में दुःखी
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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