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श्री गुणानुरागकुलकम् वर्तमान समय में एक धर्म के दो समुदाय दिखाई पड़ते हैं, जिनमें केवल क्रियाकांड का ही भेद है, उनमें कन्या व्यवहार (संबंध). होता है, किन्तु बाद में धर्म विरुद्धता के कारण पति-पत्नी के बीच में जीविन-पर्यन्त वैर-विरोध हुआ करता है, जिससे वे परस्पर सांसारिक सुख भी भले प्रकार नहीं देख सकते, तो फिर कुल शील असमान हो, उनकी तो बात ही क्या कहना है ? क्योंकि ऐसे संबंध . में तो प्रत्यक्ष प्रेमाऽ भाव दृष्टिगोचर होता है।
भिन्न गोत्रवालों के साथ में विवाह करने का तात्पर्य यह है कि - एक पुरुष का वंश 'गोत्र' और उसमें उत्पन्न होने वाले 'गोत्रज' . कहलाते हैं। गोत्रज के साथ में विवाहित होने से लोक विरुद्धता रूप भारी दोष लगता है, क्योंकि जो मर्यादा चली आती है, वह अनेक बार पुरुषों को अनर्थ प्रवृत्ति से रोकती है। यदि गोत्रज में विवाह करने की मर्यादा चलाई जाय, तो बहिन-भाई भी परस्पर विवाह करने लग जायें ? और यवनव्यवहार आर्य लोगों में भी प्रगट हो जाय, जिससे अनेक आपत्तियों के आ पड़ने की संभावना है। अतएव शास्त्रकारों ने भिन्न गोत्रज के साथ में विवाह करना उत्तम बताया है। मर्यादायुक्त विवाह से शुद्ध स्त्री का.लाभ होता है और उसका फल सुजात पुत्रादिक की उत्पत्ति होने से चित्त को. शांति मिलती है। शुद्ध विवाह से संसार में प्रशंसा और देव अतिथि आदि की भक्ति तथा कुटुम्ब परिवार का मान भले प्रकार किया जा सकता है, कुलीन स्त्रियाँ अपने कुल शील की और ध्यान कर मानसिक विकार होने पर भी अकार्य सेवन नहीं करती हैं, परन्तु मनुष्यों को चाहिये कि - समस्त गृह व्यवहार स्त्रियों के अधीन रक्खें १, द्रव्य अपने अधीन रखकर खर्च से अधिक स्त्रियों को न दें २, स्त्रियों को अघटित स्वतंत्रता में प्रवृत्त न होने दें, किन्तु कब्जे में रक्खे ३ और