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________________ १६६ श्री गुणानुरामकुलकम् "निपानमिव मण्डूकाः, सरः पूर्णमिवाण्डजाः। शुभकर्माणमायान्ति, विवशाः सर्व संपदः" ॥१॥ आरंभे नास्ति दया, महिलासङ्गेन नाशयति ब्रह्म। शङ्कया सम्यक्त्वं, अर्थग्राहेण प्रव्रज्याम् ॥१॥ __ भावार्थ - जिस प्रकार मंडूक (देड़का) कूप और पक्षी समूह जल पूर्ण सरोवर के पास स्वयमेव जाते हैं, उसी प्रकार नीतिमान् .. मनुष्य के पास शुभकर्म से प्रेरित हो सर्वसम्पत्तियाँ स्वयमेव चली जाती हैं। अतएव न्यायपूर्वक द्रव्य उपार्जन करना यह गृहस्थ धर्म का प्रथम कारण और मार्गानुसारी का प्रथम गुण है। इसलिये शुद्धांतःकरण (ईमानदारी) के साथ जिस तरह हो सके न्यायपूर्वक ही द्रव्य पैदा करना चाहिये, जिससे कि उभयलोक में सुख प्राप्त हो। २. शिष्टाचार प्रशंसक - अर्थात् भव्य पुरुष को शिष्ट पुरुषों के आचार की प्रशंसा करने वाला होना चाहिये, क्योंकि शिष्टाचार प्रशंसक मनुष्य किसी दिन उत्तम आचार को अवश्य प्राप्त कर सकता है। व्रती, ज्ञानी और वृद्ध पुरुषों की सेवा से जिनने शिक्षा प्राप्त की है वे 'शिष्ट' और शिष्ठों का जो आचार वह 'शिष्टाचार' कहा जाता है अथवा लोकापवाद से डरना, अनाथ प्राणियों का उद्धार करने में आदर रखना, कृतज्ञता और दाक्षिण्यता आचरण करना, उसको भी शिष्टाचार (सदाचार) कहते हैं। सत्पुरुषों के आचार की प्रशंसा कवि इस प्रकार करते हैं .. "विपद्युञ्चैः स्थैर्य पद्मनुविधेयं च महतां, प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम्।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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