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श्री गुणानुरागकुलकम्
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योगीजी ने ध्यान समाप्त कर देखा, तो सामने मोहर पड़ी है, उसको देखते ही सोचा कि "मैंने किसी से याचना नहीं की, याचना करने से क्या कोई सोना मोहर भेंट करता है ? शिव ! शिव !! चार आना भी मिलना मुश्किल है। यह तो परमेश्वर ने ही भेजा है, क्योंकि मैंने ध्यान के द्वारा जगत का तो स्वरूप देख लिया, परन्तु अनुभव द्वारा स्त्री भोग का साक्षात्कार नहीं किया, अतएव ईश्वर ने कृपा कर यह भेंट दी है। " इत्यादि अनर्थोत्पादक विचार योगी के हृदय में उभड़ आए। बस योगी ने अन्यायोपार्जित सोना मोहर के प्रभाव से कुकर्मवश चालीस वर्ष का योगाभ्यास गङ्गा के प्रवाह में बहा दिया, क्योंकि स्त्रीसमागम से योग नहीं रह सकता । कहा भी है
" आरंभे नत्थि दया, महिलासंगेण नासई बंभं ।
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संकाए सम्पत्तं, अत्थग्गाहेण पव्वज्जं ॥१॥
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भावार्थ आरंभ करने में दया नहीं है, स्त्री समागम से ब्रह्मचर्य योग, संशय रखने से सम्यक्त्व और परिग्रह ( द्रव्य) ग्रहण करने से संयम योग का नाश होता है।
इस प्रकार नीति सम्पन्न द्रव्य से मच्छीमार का सुधार और अनीति सम्पन्न द्रव्य से योगी के संयम योग का नाश ये दोनों बातें - राजा के पास सभा में जाहिर की गईं, उनको सुनकर राजा समझ गया कि - वास्तव में नीतिमान् पुरुष निर्भय रहते हैं और अनीतिमान् सर्वत्र शङ्कित रहते हैं तथा नीतिमान् पुरुषों के पास लक्ष्मी स्वयमेव चली जाती है। कहा भी है कि -