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श्री गुणानुरागकुलकम् ममत्व, अपनी प्रशंसा व दूसरों का अपमान, परस्त्रीगमन, परधनहरण
और वाचालता आदि दोषों के आचरण करने से कषायाग्नि बढ़ती है। इसलिए बुद्धिमान पुरुषों को परम शान्तगुण धारण कर कषायाग्नि को उपशान्त करने में ही सदा प्रयत्नशील बनना और परमात्मा वीर प्रभु के सदुपदेशों को आचरण कर सद्गुण संगृहीत करना चाहिए।
___संसार में गुरुत्व की चाहना हो तो परदोषों का देखना सर्वथा छोड़ दो जइ इच्छह गुरुअत्तं, तिहुअणमझम्मि अप्पणोनियमा। ता सव्वपयत्तेणं, परदोसविवज्जणं कुणह ॥१२॥ "यदीच्छथ गुरुकत्वं, त्रिभुवनमध्ये आत्मनो नियमात्। तर्हि सर्वप्रयत्नेन, परदोषविवर्जन कुरुथ ॥१२॥"
शब्दार्थ - (जइ) जो तुम लोग (तिहुअणमझम्मि) तीनों भुवन के मध्य में (अप्पणो) अपना (गुरुअत्तं) बड़प्पन (इच्छह) चाहते हो (ता) तो (नियमा) निश्चय से (सव्वपयत्तेणं) सर्वप्रयत्न से (परदोसविवज्जणं) परदोषों का वर्जन (कुणह) करो।
भावार्थ - भव्यो! यदि तुम्हें संसार में बड़प्पन की इच्छा हो और सब में अग्रगण्य बनने की इच्छा हों तो दूसरों के दोष निकालना छोड़ दो, तो सबमें तुम्हीं को मुख्यपद प्राप्त होगा और सगुणी बनोगे।
विवेचन - हर एक महानुभावों को यह इच्छा अवश्य उठती रहती है कि हमारा महत्व बढ़े, हमारा स्वामित्व बढ़े, हमारा सम्मान (सत्कार) होता रहे और सर्वत्र हमारी यशः कीर्ति फैलती रहे। इसी आशा से संसार में सब कोई दुःसाध्य कार्यों को भी अनेक दुःख सह करके पार लगाकर उच्चतम उपाधि को सम्पादन करते हैं। चाहे