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श्री गुणानुरागकुलकम्
महानुभावों! कषायों की प्रबलता से शरीर दुर्बल हो जाता है, तथा अनेक दुःख और खेद देखना पड़ते हैं, एवं दूसरों के अधिकार छीन लेने का पाप सिर पर लेना पड़ता है और अपमान निर्लज्जता, बध, हत्या, निष्ठरता, वैर, विरोध आदि दोषों का उद्भव होता है। जिससे मन में एक प्रकार की वेदना बनी रहती है और अध्यात्मज्ञान तो नष्ट भ्रष्ट ही हो जाता है। इससे बुद्धिमानों को उचित है कि नित्यानन्द और अक्षय स्थान को प्राप्त करने के लिए ज्ञान दीपक से कषायरूप अंधकार को दूर करें, निचभाव और दुर्गुणों को छोड़कर उत्तम भाव और सद्गुण अपने हृदय में स्थापन करें, स्वार्थ को त्याग करके परोपकार करने में सदा उद्यत रहें और कषायों का जय करके सदाऽऽनन्दी शान्तगुण में लीन हों, क्योंकि नरक और तिर्यचग्गति का रोधक और सर्वदुःखविनाशक शान्ति महागुण ही है, इसके प्रभाव से अनेक. अपरिमित सुख लीला प्राप्त होती है
और मनुष्य संसार में परिपूर्ण योग्यता प्राप्त कर सबका पूज्य बन जाता है। .. शान्तस्वभाव से 'प्रसन्नचन्द्र' राजर्षी अष्टकर्म खपाकर मोक्षसुख को प्राप्त हुए। 'दमसार' मुनि इसी शान्तभावना के बल से केवल ज्ञान के अधिकारी बने हैं, और शान्तस्वभाव से ही 'अच्चंकारीभट्टा' इन्द्रादिकों की भी प्रशंसनीय हुई और स्वर्गसुख विलासिनी बनी है। शान्तरस में लवलीन होकर ‘चण्डरुद्राचार्य' अनेक भवसंचित पापकर्मों का क्षय कर केवलश्री और मुक्तिरमणी के स्वामी बने हैं। ., क्षमा, सद्विचार, सदाचार आदि के सेवन करने से कषायाग्नि शान्त होती है, और परनिन्दा, ईर्षा, कुत्सित व्यवहार,