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________________ " बुराई का प्रतीकार ( हटाने का उपाय) बुराई नहीं है, किन्तु बुराई, भलाई से जीती (हटाई जाती है। अतएव हर एक मनुष्य 'के साथ तुम उतनी ही भलाई करो, जितनी कि तुम्हारे साथ बुराई की जाती हो। " वस, इन्हीं परमर्षी कृत महान् सिद्धांतों का समर्थन ( विवेचन ) करने वाला और उनकी असली वस्तुस्थिति बतलाने वाला यह ग्रंथ है। इसके मूल ग्रंथकार श्री सोमसुन्दरसूरिजी महाराज के सुशिष्य पं. श्री जिनहर्षगणि माने जाते हैं। उन्होंने इसको प्राकृतभाषामय आर्या छन्दों में रचा है, जो अति सरल, सरस और बोधप्रद है। इसी २८ गाथामय लघु-ग्रंथ का यह विस्तृत हिन्दी विवेचन है। इसमें प्रथम मूल गाथा, उसकी संस्कृत - छाया, बाद उसका शब्दार्थ, भावार्थ और विस्तृत विवेचन रक्खा गया है। विवेचन में मूल ग्रंथकार के आशय को अनेक युक्ति प्रमाणों से सरल, सरस और रोचक बनाया गया है। मूल-ग्रंथ और विस्तृत विवेचन में किन-किन विषयों का समावेश किया गया है, यह इसके प्रारंभ में दिए हुए विषय निर्देशन को बाँचकर जान लेना चाहिए। हमें पूर्ण विश्वास है कि संसार में चाहे जैसा निर्गुणी मनुष्य क्यों न हो, पर वह एक बार इस विवेचन को वाँच सद्गुणी भले न बने, परन्तु उसको अपनी भूलों के लिए हार्दिक पश्चाताप तो अवश्य ही होगा और पश्चाताप के वजह से एक दिन वह सद्गुणी बनने का प्रयत्न करते देख पड़ेगा। इसकी पहली आवृत्ति संवत् १९७४ में शा मोती दलाजी पोरवाड़ बागरावाले के तरफ से छप चुकी है, जो प्रकाशित होते ही हाथोहाथ चली गई। यह इसका द्वितीय संस्करण है, जो सुधारे वधारे के साथ प्रकाशित है। इसको जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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