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श्री गुणानुरागकुलकम् बताकर लोगों को फंदे में डाल देते हैं दंभी लोग गुणी जनों का किसी समय कुछ छिद्र पाकर उसको विस्तार कर उनका अपवाद उड़ाने में चतुर हुआ करते हैं, और मायावी सत्य के तो शत्रु ही होते हैं। जैसे भोजन के साथ खाई गई मक्खी खुद प्राणभ्रष्ट होकर खाने वाले को भी वान्त (वमन) कराए बिना नहीं रहती, इसी तरह मायावी खुद धर्मभ्रष्ट होकर दूसरों को भी धर्म से वेमुख बना डालते हैं। अतः गुणसम्पत्ति की चाहना रखने वाले महानुभावों को माया (कपट) और मायावी लोगों का समागम सर्वथा त्याग करना चाहिए। . यदि कहा जाय कि - शास्त्रकारों ने कारणवशात् मायास्थान सेवने की आज्ञा क्यों दी है, क्या किसी कारणवश माया करने में दोष नहीं है? ___ इसका उत्तर यह है कि धार्मिक निन्दा मिटाने के लिए शास्त्राज्ञा से यथाविधि जो माया स्थान को सेवन किया जाता है वह मायास्थान ही नहीं है। क्योंकि उसने अपना स्वार्थ कुछ भी नहीं है, किन्तु जैन शासन की रक्षा है, इससे वह अमायावी भाव है। आत्मप्रबोध ग्रन्थ के तीसरे प्रकाश में लिखा है कि - .. यः शासनोड्डाहनिवारणाऽऽदि- सद्धर्मकार्याय समुद्यतः सन्। . तनोति मायां निरवद्यचेताः, प्रोक्तः स चाऽऽराधक एव सुज्ञैः ॥१॥
भावार्थ - जो शासन की निन्दा निवारण आदि सद्धर्म कार्य के वास्ते उद्यत हुआ पुरुष निरवद्य (निर्मल) परिणाम के मायास्थान का सेवन करता है, वह महर्षियों के द्वारा आराधक ही कहा गया है। . . इसलिए धर्म की अपभ्राजना (निन्दा) मिटाने के लिए जो 'माया' है, वह माया नहीं समझना चाहिए, क्योंकि जहाँ जिनेन्द्र की आज्ञा है वहाँ किञ्चिन्मात्र भी दोष संभवित नहीं होता। जो जिनाज्ञा