SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ ___ श्री गुणानुरागकुलकम् उपाध्याय, योगी हो या संन्यासी, साधु हो या गृहस्थ, क्रियापात्र हो या शिथिलाचारी, पंडित हो या मूर्ख, माया जाल तो सब के लिए दुःखदायक और मुक्तिमार्ग निरोधक ही है। __जिनेश्वरों ने यद्यपि एकान्तविधि और एकान्तनिषेध किसी बात का नहीं निरूपण किया और शरीर शक्ति प्रमाणे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चतुष्टयी के अनुसार प्रवृत्ति करने की आज्ञा दी है। और पर्षद् में बैठ कर उपदेश दिया है कि - "माया को छोड़ो! जहाँ तक निष्कपट भाव नहीं रखोगे तहाँ तक भला नहीं हो सकेगा। मल्लिजिनेन्द्र ने अपने पूर्वभव में कपट से तप किया जिससे उन्हें स्त्रीगोत्र बाँधना पड़ा, अतः कपट करना बहुत बुरा है" माया नरक कुंड में जाने के लिए सीढ़ी के समान है, स्वर्ग और अपवर्ग के सुखों को जलाने के लिए दावानल है, ज्ञानेन्दु को ढाँकने में राहु के समान है और सुकृतवल्ली को काटने के लिए कुठार (कुहाड़ी) है। कुडिलगई कूरमई, सयाचरणवज्जिओ मलियो। मायावी नरो भुयगव्य, दिट्ठमत्तो वि भयजणओ॥ भावार्थ - मायावी पुरुष वक्रगतिवाला, क्रूर (दृष्ट) बुद्धिवाला, सदाचरण से वर्जित अर्थात् उत्तम-आचार से रहित, मलिन हृदयवाला और सर्प की तरह देखने मात्र से भय उत्पन्न करने वाला होता है। . __ मायावी लोग ऊपर से प्रसन्नवदन और मधुर वचन बोलने वाले होते हैं, किन्तु उनके हृदय में प्रतिक्षण माया रूप कतरनी चला करती है। भादों में चीभड़ें और जुआर के छोड़ देखने में अत्यन्त सुन्दर मालूम होते हैं परन्तु जब पशुओं (ढोरों) के खाने में आ जाते हैं तो उनके शरीर में 'मीणा' रोग पैदा कर मरण के शरण बना डालते हैं। उसी प्रकार मायावी पुरुष भी अपना ऊपरी व्यवहार अच्छा
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy