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________________ ও श्री गुणानुरागकुलकम् पूर्ति न होने से महा दुःखी बना रहता है। इसी भावार्थ का यह श्लोक भी है - • 'न जातु कामः कामाना - मनुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्मेव, भूय एवाभिवर्द्धते' ॥१॥ . इससे यह संसार अध्यात्म दृष्टि से केवल दुःखात्मक और नीचगति दायक ही दिख पड़ता है, परन्तु जिन महानुभावों के ऊपर संत-महात्माओं की दया हो गई है, वे महानुभाव संसार में स्थित रहने पर भी महात्माओं के समान स्वजीवन को व्यतीत करते हैं और सदा निर्भय रहते हैं, क्योंकि उन्हें सांसारिक विषयों से उदासीनता बनी रहती है, इससे वे संसार में लिप्त नहीं होते। अतएव हे कृपानिधान ! हे जगदुद्धारक ! हे मुनिशक्रचक्रचूड़ामणे ! अब मुझे आप अपने अनुसार शुद्धमार्ग अर्पण कर, अनुपम आनन्दाधिकारी "बनाइये, क्योंकि • अब मुझे कोई भी आपके सिवाय दूसरा सुखी सुखदायक नहीं देख पड़ता और न कोई आपके सिवाय स्वजन धु वर्ग ही है। अतः परं - त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव ! ॥१॥ भावार्थ - हे देवदेव ! महात्मन् ! मेरे आप ही माता सदृश और :. आप ही पिता सदृश हैं, आप ही बंधु और आप ही (उत्तम) मित्र सदृश हैं, आप ही विद्या और आप ही बल व धन सदृश हैं, आप ही सर्व - कुटुम्ब के समान हैं। क्योंकि - सांसारिक कुटुम्ब तो विनाशवान् है, किन्तु एक आपका ही समागम अविनाशी है, अर्थात् आपकी सेवा से ही
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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