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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् के देखा, तब निज रूप लखाया ॥ अ. ॥१॥ इतने दिन हम बाहर खोजा, पास हि सन्त बताया। तिन कारन गुरु सन्त हमारे, छूवत नहिं धन माया ॥ अ. ॥२॥ सहस जन्म जो नजर न आवे, छिन में सन्त बताया। संतगुरु हैं जग उपकारी, पल में प्रभु दरसाया ॥ अ. ॥३॥ तीन लोक की सम्पत सब ही, हिरदय में प्रकटाया। शिवानन्द प्रभु सब जग दीसत, आनन्द रूप बनाया ॥ अ. ॥४॥" हे महात्मन् ! आपकी अनुपम कृपा से मैंने छ महीने पर्यन्त भ्रमण कर अनेक स्थानों में सांसारिक विनाशी सुखों का अनुभव कर लिया, परन्तु किसी जगह सुख का अंश भी नहीं दिखाई पड़ा। संसार में जिधर दृष्टि डाली जाय, उधर प्रायः दुःख ही दुःख है, किन्तु सुख नहीं है। मनुष्यादि प्राणी दुःखमय माया जाल में फँस कर अपने कर्मों के अनुसार अनेक प्रकार के शरीर धारण कर जन्म-मरण संबंधी असह्य क्लेशों को सहन करते फिरते हैं। संसार असार है और अज्ञान दशा से लोगों ने उसको सुखरूप मान र है, जैसे जल के अन्दर ऊँची-ऊंची लहरें उठतीं और तत्काल है... में विलीन हो जाती हैं। इसी प्रकार भोग विलास भी चंचल : अत्यन्त दुःखदायक है। यह युवावस्था भी स्वल्पकालगामी ही , स्वजनादिक में प्रीति भी चिरस्थायी नहीं है, इन्द्रियों की शक्ति भी प्रबल नहीं रहती और इच्छाओं की पूर्ति भी परिपूर्ण नहीं हो सकती, क्योंकि जो मनुष्य अपनी इच्छाओं को बढ़ाता रहता है, उसको शांति कभी नहीं हो सकती ? जैसे अग्नि पर जितना घी डालोगे, उतनी ही वह अग्नि बढ़ती जाएगी। इसी तरह इच्छाओं को बढ़ाने में जो सदा लगा रहता है, उसका चित्त प्रतिसमय उद्विग्न और इच्छाओं की
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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