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________________ ७४ श्री गुणानुरागकुलकम् कृत्याऽकृत्य, यावद् गुण और दोष की परीक्षापूर्वक सत्यमार्ग का आचरण करते हों २, सत्त्वसम्पन्न स्वपुरुषार्थ का सदुपयोग करते हों, प्रारंभ किए हुए कार्य को पार करें और आचरित प्रतिज्ञा को अन्तः पर्यन्त निर्वाह करने वाले हों ३; सुकृताऽऽशय जिनका आशय निरंतर निर्मल रहता हो, किसी समय दुर्ध्यान के वशीभूत न हों ४, सर्वसत्त्वहित प्राणीमात्र का हित करने में दत्तचित्त रहते हों और मन, वचन, काया से नित्य सबका भला ही करना चाहते हों ५, सत्यशालीजो अत्यन्त मधुर हितकारी वचन बोलते हों, प्राणसंदेह होने पर भी सत्य सीमा का उल्लंघन नहीं करते हों और राज्यादि - सांसारिक पदार्थ प्राप्ति के लिए भी असत्य वचन नहीं बोलते हों ६; विशदसद्गुणी उत्तम क्षमा, नम्रता, सरलता, संतोष, तप, संयम, सत्य, प्रामाणिकता, निस्पृहता और ब्रह्मचर्य आदि सद्गुण धारण करने वाले हों ७, विश्वोपकारी अनेक उपायों से प्राणियों का उपकार करने में प्रयत्न करते रहते हों और सबके पूज्य होने पर भी निरहंकार रहते हों, किन्तु किसी का उपकार कर प्रत्युपकार (बदला) की इच्छा (दरकार) नहीं रखते हों ८, सम्पूर्ण चन्द्र मंडल की तरह शुद्ध निरतिचार चरित्र धारक हों, समभाव (शान्तरस) में लीन रहते हों और सब किसी को वैर-विरोध कम करने का उपदेश देते हों ९, विनीत आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल, गण, शास्त्र और चैत्य (जिन प्रतिमा) आदि का यथार्थ विनय साँचवते हों १०, विवेकी राजहंस की तरह दोषों को तजकर गुणों का ही ग्रहण करते हों, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार आप्तप्रणीत निर्दोष मार्ग ही आचरण करते हों ११, एतद् गुण विशिष्ट पुरुष ही 'महापुरुष' कहे जाते हैं। न व्रते परदूषणं परगुणं वक्त्यल्पमप्यन्वहं, सन्तोषं वहते परर्धिषु पराबाधासु धत्ते शुचम्। . स्वश्लाघां न करोति नोज्झति नयं नौचित्यमुल्लङ्घय त्युकोऽप्यप्रियमक्षमां न रचयत्ये तच्चरित्रं सताम् ।१।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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