SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री गुणानुरागकुलकम् ६९ की अवस्था देखकर, ब्राह्मण व्यापारी वर्ग का सुखानुभाव करने के इरादे से बाजार में आया और वहाँ व्यापारियों को लेन देन का झगड़ा करते और न्यायाऽन्याय का विचार न कर क्रय विक्रय के मध्य में एक दूसरे की वञ्जना करते और मिथ्या बोलने का स्वाभाविक व्यवहार करते हैं, बल्कि भोजन करने का भी जिन्हें समय नहीं मिलता। इस प्रकार लेतान में लगे देख ब्राह्मण घबराया और सोचने लगा कि - यहाँ तो हलाहल दुःख मचा हुआ है। इससे यहाँ पर सुखानुभव करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि जहाँ केवल दुःख ही उपलब्ध है, वहाँ सुख की संभावना करना भी व्यर्थ है। बाजार से निराश होकर ब्राह्मण एक प्रतिष्ठित 'साहूकार की हवेली के समीप आया । यहाँ हवेली की तरफ दृष्टि डाली तो मालूम हुआ कि इसमें एक श्रीमंत 'सेठ' गादी तकिया लगाकर आनन्दपूर्वक बैठा हुआ है और उसके आगे अनेक गुमास्ते काम कर रहे हैं। कई लोग सेठ की हाजरी बजा रहे हैं, अनेक पंडित लोग स्तुति पाठ पढ़ रहे हैं, बन्दीजन नाना प्रकार का कीर्तन कर रहे हैं और हाथी, घोड़ा, गांड़ी, इक्का, बग्घी और हथियारबन्ध सिपाही आदि सजकर हाजर खड़े हुए हैं। इत्यादि धामधूम से संयुक्त सेठ को देखकर ब्राह्मण मन में विचार करने लगाकि बस यह सेठ सम्पूर्ण सुखी दिखाई देता है। इसलिए महात्मा से इसके समान सुख माँग लूं, परन्तु साथ ही भाग्यवश यह विचार उठा कि एक वखत सेठ से मिल कर इसके सुख का निर्णय तो अवश्य कर लेना चाहिए। क्योंकि - अनिर्णीत विषय की याचना, पीछे से अहितकर होती है।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy