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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् ६३ धर्मानुकूल चलता है, उसको कुलयोगी समझना चाहिए। सामान्यतः जो उत्तम भव्य किसी के ऊपर द्वेष नहीं रखने वाला, दयालु, नम्र, सत्याऽ सत्य की पहचान करने वाला, और जितेन्द्रिय हो उसको 'गोत्रयोगी' कहते हैं। किन्हीं आचार्यों ने तीन प्रकार का अभ्यास माना है। . सतताभ्यास १. विषयाभ्यास २. और भावाभ्यास ३. माता-पिता आदि का विनय आदि करने को 'सतताभ्यास' कहते हैं। मोक्षमार्ग में श्रेष्ठतम (नायक) श्री अरिहंत भगवान की वारंवार पूजनादि में प्रवृत्ति को 'विषयाभ्यास' कहते हैं। भवभ्रमण से उद्विग्न होकर सम्यग दर्शनादि भावों का पुनः परिशलीन (विचार) करने को 'भावाभ्यास' कहते हैं। यहाँ निश्चयानुसार सतताभ्यास और विषयाभ्यास ये दो युक्त नहीं हैं? क्योंकि - माता पिता आदि का वैयावृत्यादि स्वरूप सतताभ्यास करेंगे तो सम्यग्दर्शनादि के आराधन का अभ्यास न होने से धर्मानुष्ठान नहीं सध सकता, और अहंदादि का पूजन स्वरूप विषयाभ्यास करने पर भावसहित भववैराग्य नहीं होने से धर्मानुष्ठान की मर्यादा नहीं प्राप्त होती। अतएव परामार्थोपयोग रूप धर्मानुष्ठान होने से निश्चय नय के द्वारा भावाभ्यास ही आदर करने योग्य है। और व्यवहारनय से तो अपुनर्बन्धकादि में प्रथम के दोनों अभ्यास समाचरण करना आवश्यक है। क्योंकि - व्यवहारनयाभ्यास के बिना निश्चयनयाभ्यास नहीं हो सकता, इसलिए सतताभ्यास और विषयाभ्यास करते-करते भावाभ्यास प्राप्त होता है। तीव्रभाव से पाप को नहीं करना उसका नाम 'अपुनर्बन्धक' है। अपुनर्बन्धक में आदि पद से अपुर्नबन्धक की उत्तर अवस्था विशेष को भजने वाला
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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