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श्री गुणानुरागकुलकम्
सकता है, क्योंकि - अपने सदाचारी समुदाय के बल से वह अनेक गुणों को प्राप्त करता हुआ, अन्य मनुष्यों को भी धर्मविलासी बना सकता है।
१५. दीर्घदर्शिता जिस कार्य का भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान काल में सुन्दर परिणाम हो, वैसा कार्य करना और जिस कार्य की सज्जन लोग निन्दा करें अथवा जिसका परिणाम (फल) उपहास या दुःख का कारक हो, उसका परित्याग करना दीर्घदर्शिता कहाती है। दीर्घदर्शी पुरुष ही अपनी उत्तमता से उभयलोक में प्रशंसा का पात्र बनकर सुखी होता है।
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१६. विशेषज्ञता - वस्तुधर्म के हिताऽ हित, सत्यांऽ सत्य, तथा सारासार को जानकर गुण और दोष की परीक्षा करना । विशेषज्ञता कहाती है। विशेषज्ञ (विवेकवान् ) पुरुष आग्रह को छोड़कर निष्पक्षपात बुद्धि से सत्य मार्ग में अपनी श्रद्धा को स्थापित करता है, इससे वह आत्मा दुर्गति का भाजन नहीं बन सकता।
१७. वृद्धानुग - सदाचारी, विवेकवान् उत्तम पुरुषों के मार्गानुसार वर्त्तना अर्थात् अशुभचार और दुर्गतिदायक कार्यों को छोड़कर पूर्वाचार्यों के उत्तम मार्ग में प्रवृत्ति करना वह 'वृद्धानुग' गुण कहा जाता है। शिष्ट पुरुषों की परम्परा के अनुकूल चलने वाला पुरुष उत्तमोत्तम सद्गुणों का पात्र बनता है, क्योंकि उत्तमाचरण से अधम मनुष्य भी उत्तम बन सकता है, अतएव शिष्ट पुरुषों के मार्ग पर चलने वाला ही धर्म के योग्य हो सकता है।
१८. विनयवान- माता, पिता और धर्मचार्य तथा श्रीसंघ आदि पूज्य पुरुषों की आदर से सेवा भक्ति करना और पूज्यवर्गों की आज्ञा का उल्लंङ्घन नहीं करना और नम्र स्वभाव से बरतना वह 'विनय' गुण कहा जाता है।