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=सम्पादक की ओरपरम पूज्य आराध्यपाद श्रीमद्विजय यतीन्द्रविजयजी महाराज स्वाध्याय में मग्न रहते श्री जिनहर्षगणीजी द्वारा रचित प्राकृत भाषा में श्री गुणानुराग कुलक को अध्ययन कर रहे थे, सहसा आत्म कल्याण की भावना के साथ पर कल्याण की भावना जाग्रत हुई, पूज्यवर ने २८ श्लोक संस्कृत शब्दार्थ विस्तृत विवेचन करके प्राणीमात्र अपना जीवन
आदर्श बनाए उन विचारों को सजोकर श्री गुणानुराग कुलक ग्रन्थ रूप में • प्रकाशित किया। ग्रन्थ कितना उपयोगी है, यह पाठक वर्ग अध्ययन करेंगे तब ज्ञात होगा, इसकी उपयोगिता कैसी है, इसका प्रमाण यह है कि अल्प समय तीन आवृति छप गई।
प्रथमावृति आपश्री के मनि जीवन में प्रकाशित हुई। द्वितीयावृत्ति आप उपाध्याय पद को शोभायमान कर रहे थे तब एवं आज यह तृतियावृत्ति आपश्री के दीक्षा शताब्दी वर्ष में प्रकाशित हो रही है। - यह प्रेरणा ज्येष्ठ गुरु बन्धु संयमवय स्थिविर मुनि श्री सौभाग्यविजयजी महाराज की प्रेरणा रही कि अपने गुरुदेव द्वारा समय-समय पर शास्त्र रचना कि वह बहुजन उपयोगी साहित्य को पुनः प्रकाशित करना श्रेयस्कर रहेगा। शिष्य द्वय बन्धु प्रवचनकार, शासनरत्न मुनिराज हितेशचन्द्रविजय श्रेयस मधुर गायक सेवा भावि मुनिराज दिव्यचन्द्रविजय सुमन भी सहयोगी
साहित्य प्रकाशित करने में आहोर (राजस्थान) में श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति के कार्यकर्ता निःस्वार्थ भावना से अपने परोपकारी गुरु भगवन्तों के प्रति समर्पण भाव से सेवा करते हैं। आहोर निवासी श्रेष्ठीवर्य वक्तावरमलजी के सुपुत्र श्री शांतिलालजी मूथा मंत्री श्री भूपेन्द्र सूरि साहित्य समिति आहोर का सर्वोच्च सहयोग रहता है, आपकी श्रुत भक्ति को धन्यवाद आप शतायु हों और शासन सेवा करते रहें यही मंगल कामना श्री मोहनखेड़ा तीर्थ २०५४ ज्येष्ठ सुदि ४
निज भाविजय
ममण