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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् ४८ है। बहुत क्या कहा जाय विद्यावृद्ध, राजा, महाराजा आदि सब लोग प्रायः धनी के अधीन रहते हैं । अतएव उस विदेशी सेठ का प्रभाव सब जातियों और राज्य में परिपूर्ण रूप से जम गया और सारे शहर में उसी की प्रशंसा होने लगी। परन्तु 'गाँव तहाँ ढेडवाडा होय' इस कहावत के अनुसार जहाँ सज्जनों की बहुलता होती है, वहाँ प्रायः दो-चार दुर्जन भी हुआ करते हैं। इसलिये सेठ का अभ्युदय देख 'धन्नूलाल' चौधरी से रहा नहीं गया, अर्थात् - सेठ के उत्तम गुणों का अनुकरण नहीं कर सका, किन्तु ईर्ष्या के आवेश में आकर सेठ की सर्वत्र निन्दा करने लगा, लेकिन लोगों ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया, किन्तु प्रत्युत : धन्नूलाल को ही फटकारना शुरू किया, तब वह दीनवदन हो सेठ के छिद्रों का अन्वेषण करने में उद्यत हुआ, परन्तु जो लोग हमेशा दोषों से बच कर रहते हैं और जो सदाचारशाली पुरुष कुमार्गों का अनुकरण ही नहीं करते, उनमें दोषों का मिलना बहुत कठिन है । धन्नूलाल सिर पीट-पीट कर थक गया, तो भी सदाचारी सेठ के अन्दर वह किसी हालत में छिद्र नहीं पा सका। एक दिन सेठ ने पिछली रात को निद्रावसान में विचार किया कि मैंने पूर्वभवोपार्जित पुण्योदय से इतनी लक्ष्मी प्राप्त की है और सब में अपना महत्त्व जमाया है, इस वास्ते अब कुछ न कुछ सत्कार्य करना चाहिये, क्योंकि सद्धर्ममार्ग में व्यय की हुई लक्ष्मी ही पुण्यतरु की वर्द्धिका है; जिन्होंने लक्ष्मी पाकर उन्नतिमय कार्य नहीं किये, उनका जीना संसार में व्यर्थ है। ऐसा विचार कर सेठ ने निश्चय कर लिया कि अच्छा दिन देख के सकुटुम्ब शत्रुंजय महातीर्थ की यात्रा करनी चाहिये । - W
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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