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________________ 36 586 683 94 97 138 साम्येन हि सम सारस्तु व्यवहार सा हि प्रथम साक्षात्तदन्वित सिद्धान्तं क्वचित् सिद्धरूपतया सुख सुप्तो सुखदुःखादि सुखवत् ज्ञान सुखाधिगम सुखादि चैत्य 66 318 305 314 603 261 86 450 68 639 46 316 438 265 सुखादेरपि 298 309 297 354 434 428 276 343 433 133 409 63 345 47 718 129 310 218 स्थिते च वस्तु स्थिरत्वाविषय स्थिरेणपि न स्थूलप्रयत्न स्निग्धाभिदुग्ध स्पन्दामत्क स्पर्शमानो स्पष्टामपि तु स्पृशन्ति नियतं स्फुरति यदि स्मरणप्रत्यभि स्मरणप्रत्यभिज्ञाने स्मृतिः स्मर्त स्मृतिवत्परिहर्त स्मृतेरनुभवो स्यात् कश्चिदिष्ट स्वकर्मफल स्वजायाजधन स्वतन्त्रं ज्ञान स्वभावशुद्ध स्वयं चांगीकारो स्वयं प्रादीदृशत् स्वयं रागादि स्वरूपज्योति स्वरूपसहकार्य स्वरुपे शक्तिजत्वे स्वरूपैकप्रतिष्ठा स्वर्गस्य च फल स्वर्गादि साध्य स्वलक्षणं अतो स्वाभाविकत्वं कार्याणामधुनैव 294 450 316 296 640 सुखिनो वय सुखे दुःखनिवृत्ती सुगन्धिशीतला सुतरां तेन सुरगुरुवरपर सूत्रे पृथगुपा सूनुप्ति । सेतिकर्तव्यता सेयं तपस्विनी सेयं व्युत्पत्ति सोऽपि तद्वचना सोऽध्ययुक्तः सोऽनेकप्रकृति सोऽयं च दुःख सोऽयमाधार स्तम्भादि प्रत्यामि स्तम्भादिप्रत्यमि स्तम्भादिबोधस्ते स्तम्भादि स्वभा स्थानेषु निवृत्ते 323 551 277 220 158 402 300 431 343 363 365 373 332 .335 336 314 157 356
SR No.002266
Book TitleNyayamanjari Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK S Vardacharya
PublisherOriental Research Institute
Publication Year1983
Total Pages794
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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