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________________ 31 632 347 86 योन्यः स एव यो न जानाति योऽर्थः प्रतीयते योऽसावस्माक यो हि येन यौं बतस्त्वेक यः प्रवृत्त्यनु 332 639 68 602 127 32 444 13 335 287 677 50 451 348 516 431 148 100 28 294 यस्संतानो यस्व प्रवृत्ति यागदानाद्यनु ‘या च भूभिर्विक या तु मुण्डित यागेव हि यादृग्यज्ञो बलि याशित व्यक्त्यमि या महद्भिरपि यावज्जीवं सुख यावतां ग्रहणो यावदात्मगुण यावतो यादृशा यावद्योग्यत्वमा थावांश्च क्वश्चित युक्तं च नैव युक्तं दधना युक्तस्तस्मात् युगपन्ननु युगपन्नास्य . ये चेह धृत्ती ये चत्वारः ये तु स्वप्रति येन स्वाथ वि येनाक्षर येनारमतान . येनान्वितामि ये पुनः कल्पिता ये व्याकरणसं येषामर्थषु ये हि रागादयो योगो विशेष रतमतिरभूत् रसनस्य विकार रागद्वेषादयो रागादि प्रेर्यमाणी राजा तु गहरे रुपभेदविरो रुपमन्यस्थ रुपस्य न ह्यमि रुपादिषु स्वत रुपान्तरण 359 291 266 444 199 318 506 480 291 260 165 632 60 125 36 446 621 67 '55 692 444 63 64 260 64 442 575 लक्षितव्यवित लक्ष्याभावाद लब्धात्मनरतु लिङ्गताकथन लिङ्गदर्शन लिङ्गिप्रमिति लिङ्गादि अति लोकयात्रा स्थिरै लोकवेदविहित 567 . 323 293 322 294 130 342 642 .
SR No.002266
Book TitleNyayamanjari Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK S Vardacharya
PublisherOriental Research Institute
Publication Year1983
Total Pages794
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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