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सम्यक् समर्पण
सम्यक्त्व युक्त जिनका जीवन जलधि.... * स्वभाव से कर्म के दारुण विपाक की तितिक्षा से युक्त अन्तर्मन
उपशमभाव से पूरित था.... * कारुण्य, बीभत्स-दुखों से परिपूर्ण सुखाभासरूप इस भौतिक जगत् के
प्रति संवेग के कारण उत्कट मोक्षभिलाषा के ज्वार में निमज्जित था.... - ममतासपी विष के पकिलतीर से रहित निर्वेद के कारण संसार के
प्रति औदासीन्य के. उतार की ओर अभिमुख था........ * जगत् के प्राणिमात्र के प्रति उनके स्नेहिल-मानस में अनुकम्पा
(दया) की तरंगे उल्लसित होती थी.... * आत्मा-परमात्मा और परमात्म शासन के प्रति अनुराग और समर्पणभाव . से अनुगुंजित उनका आस्तिक्य (दृढ श्रद्धा) आत्मोत्कर्ष की ओर - प्रवाहित होता था... * भयंकर .कर्करोग (केन्सर) की व्याधि की क्षणों में भी अनुत्तम समाधि, · धृति, वैराग्य और साहसरूपी रत्नों का परिचायक था.... * प्रभुशरण-स्मरण और समर्पण युक्त जीवन का प्रतिपल, प्रतिक्षण भक्ति ...में आत्मसंवेदनाओं के मुक्ताफल का सर्जन करता था.... * जड़-चेतन के भेद विज्ञानी सम जीवन अनेक अनाधारकृपावृष्टि के
अकल्प्य चमत्कारों द्वारा अनुभव सिद्ध होता था.... ऐसी भवोदधितारिका, समाधिनिमग्ना, परमोपाग्या, अनंतोपकारिणी गुरुवर्या श्री विचक्षण श्री जी म. सा. के पुनीत चरण कमलों में इस ग्रन्थ को समर्पित करते हुए आनन्दानुभूति अवर्णनीय बनी है।
सुरेखाश्री