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अध्याय २
सम्यग्दृष्टि की क्रियाएँ कैसी होती हैं ? उस का कथन है कि "दर्शन सम्पन्न जीव क्षायिक दर्शन को प्राप्त करता है जो कि संसार के हेतुभूत मिथ्यात्व का सर्वथा उच्छेद वर देने वाला है, पश्चात् उस के दर्शन का प्रकाश बुझता नहीं किन्तु उस दर्शन के प्रकाश से युक्त हुआ जीव अपने अनुत्तर ज्ञान दर्शन से आत्मा का संयोजन करता है तथा सम्यक् प्रकार से भावित होता हुआ विचरताहै " ।'
इस प्रकार सम्यग्दृष्टि की गतिविधियों का कथन करके ग्रन्थकार बता रहे हैं कि सम्यक्त्व जिस कारण से अवरूद्ध होता है वह कर्म है मोहनीय । तात्पर्य यह है कि मोहनीय कर्मावरण से जीव को सम्यग्-दर्शन की उपलब्धि नहीं हो सकती उस का उल्लेख करते हुए कहा है-मोहनीय कर्म दो प्रकार का है-दर्शनमोहनीय और चारित्र. मोहनीय । दर्शनमोहनीय के तीन भेद है-सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और सम्यस्मिथ्यात्वमोहनीय-ये तीनों कर्म प्रकृतियाँ मोहनीय कर्म की दर्शन विषयक होती है।' .. जो मिथ्यादर्शन में रत है उसे सम्यक्त्व-प्राप्ति नहीं होती, उस
का कथन है-: जो जीव मिथ्यादर्शन-मिथ्यात्व में अनुरक्त है, तथा निदानपूर्वक क्रियानुष्ठान करते हैं और हिंसा में प्रवृत्त हैं, उनको मृत्यु के पश्चात् बोधिलाभ-सम्यक्त्व की प्राप्ति होना कठिन है। ठीक इस के विपरीत १: सणसंपन्नाए णं भंते । जीवे किं जणयइ ? सण संपन्नयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ। परं न विज्झायइ । परं अविज्झाएमाणे अणुत्तरेणं नाणदसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं भावेमाणे विहरइ ।।
-वही अध्ययन २९, गाथा ६० ॥ २. मोहणिजं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । दंसणे तिविहं वुत्तं, चरणे दुविहं भवे ॥ सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तमेव य । एयाओ तिन्नि पयडीओ मोहणिजस्स दंसणे ||-वही अध्य०३३,गा ८-९।।