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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
नहीं है ऐसा साधु पासत्थ अथवा पाशस्थ है । जे. सि. बो.
सं. ३५७-३५८.
प्रतिपाती अप्रतिपाती
- चारित्र रूपी शिखर से गिरने को प्रतिपाती और न गिरने को अप्रतिपाती कहते हैं । जै. ल. १/१०४.
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प्रदेश
- आकाश के छोटे से छोटे अविभागी अंश का नाम प्रदेश है.. अर्थात् एक परमाणु जितनी जगह घेरे उसे प्रदेश कहते हैं जै. सि. को. ३/१३५.
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पृथ्वीकाय
- जिन जीवों का शरीर पृथ्वीरूप हो वे पृथ्वीकार्य कहलाते हैं जै. सि. बो. सं. २/६४.
भवसिद्धिक जीव
-जिन जीवों के मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता होती है वे भवसिद्धिक या भव्य, उससे रहित को अभव्य कहते हैं । जै. सि. बो. सं. १/७.
भव्य - अभव्य
- देखो. भवसिद्धिक जीव
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मतिश्रुत अज्ञान
- मिध्यात्व के उदय के साथ विद्यमान ज्ञान को भी अज्ञान कहा जाता है जो तीन प्रकार का है - मत्याज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंगज्ञान |
मार्गणा
- देखो ईहा |
मोहनीय कर्म
- आठ कर्मों में मोहनीय सर्व प्रधान है। जो मूढ़ करता है वह मोहनी कर्म है । इसके दो भेद हैं - १. दर्शनमोहनीय २. चारित्रमोहनीय |