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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप क्षमायाचना के लिए कहा है कि " परमात्मा के सिवा अन्य कोई भजनीय नहीं। अपने पाप के लिए श्रद्धावानों और श्रद्धावतियों के लिए क्षमा मांग।' __निष्ठावान् कौन ? तो कहा-निष्ठावान् वही है जिसने ईश्वर पर और उसके प्रेषित पर श्रद्धा रखी है और बाद में उस पर शंका नहीं. करी तथा तन-मन-धन से ईश्वर के मार्ग में जाते है, वे ही लोग सच्चे हैं। जो श्रद्धा रखते हैं और सत्कृत्य करते हैं उनके भोजन में पाप नहीं है कारण यह है कि वे प्रभुपरायण रहकर श्रद्धा रखते हैं .
और सुकृत्य करते हैं । उस पर कर्त्तव्य पूर्ण कर के श्रद्धा रखते हैं और तत्कर्मपरायण रह कर सुकृत्य करते हैं। ईश्वर सत्कृत्य करने वाले पर अत्यंत प्रेम रखते हैं।
यदि कोई दम्भी मनुष्य यह कहे कि हम तो श्रद्धा रखते हैं तो यह कह कर छूट नहीं सकते, क्या उनकी परीक्षा नहीं होती १४ ईश्वर के वचन हैं कि-" मुझ पर श्रद्धा रखनी चाहिये, कि जिससे लोग सन्मार्ग पर आवे ।' हे श्रद्धालुओ! यदि ईश्वर के प्रति तुम्हारा कर्तव्य पूरा करोगे तो वे तुमको विवेक देंगे, बुद्धि देंगे। वे तुम्हारे दोष दूर करेंगे और तुमको क्षमा करेंगे। ईश्वर ही श्रद्धावानों के चित् में समाधान पैदा करते हैं कि जिससे उनकी श्रद्धा उत्तरोत्तर बढ़ती जाय । पश्चात् मैं अपने प्रेषितों को एवं लोगों को कि जो श्रद्धायुक्त हुए उनको मोक्ष दूंगा । इसी प्रकार हमारी जवाबदारी है कि श्रद्धावानों को मुक्त करें। १. वही, ४७-१९, पृ० ५९ ।। २. वही, ४९-१५, पृ० ६२-६३ ॥ ३. वही, ५-९६, पृ० ६३ ॥ ४. वही, २९-२-३, पृ० ६८ ॥ ५. वही, २-१८६, पृ० ६९ ॥ ६. वही, ८-२९, पृ० ७० ॥ ७. वही, ४८-४॥ ८. वही, १०-१०३ ॥