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अध्याय ३..
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यही ब्रह्म है, “ सर्वम् खलु इदं ब्रह्म' । इसी प्रकार सामवेद में कहा है-" तत्त्वमसि" वह तू है। यजुर्वेद में कथन है-'अहम् ब्रह्मास्मि' मैं ब्रह्म हूँ ।' तथा अथर्ववेद में उल्लेख है-"अयम् आत्मा ब्रह्म" यह आत्मा ब्रह्म है ।
इन सबसे तात्पर्य यही है कि इस दृश्यमान जगत् में जो कुछ है सब ब्रह्म है । इस प्रकार का अनुभव होने पर अर्थात् ब्रह्मरूपी अधिष्ठान का ज्ञान होने पर अध्यारोपित जगत की निवृत्ति होती है ।
बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य मैत्रेयी को धर्मोपदेश देते हुए कहते हैं कि “हे मैत्रेयी ! यह आत्मा ही द्रष्टव्य है अर्थात् देखने योग्य है अथवा अनुभव करने योग्य है, मनन करने योग्य है, निदिध्यासन करने योग्य है । हे मैत्रेयी ! आत्मा के ही दर्शन से, श्रवण से, बुद्धिपूर्वक समझने से सब कुछ अर्थात् सब जगत् ज्ञात हो जाता है।" __यहाँ याज्ञवल्क्य द्वारा दिये गये धर्मोपदेश में आत्मदर्शन की बात सर्वप्रथम करते हैं । आत्म-दर्शन के पश्चात् श्रवणेच्छा आदि होते हैं
और ज्ञान प्राप्त होता है । आत्मदर्शन की बात सर्वप्रथम की है । यह आत्म-दर्शन संम्यग्दर्शन का रूप है। सम्यग्दर्शन अर्थात् श्रद्धा सर्वप्रथम हो जाने पर ही व्यक्ति की श्रवण की इच्छा जागृत होती है। अतः हम आत्म-दर्शन को सम्यग्दर्शन संज्ञा दे सकते हैं। उसके पश्चात् ज्ञान प्राप्त होता है। यह सूत्र भी यहाँ प्राप्त होता है। बौद्ध दर्शन में जो यह कहा गया कि “ सम्पसाद लक्खणा श्रद्धा", तथा योगदर्शन में भी कहा गया है कि " श्रद्धा चेतसः सम्प्रसादः” वह १. ऋग्वेद, एत उप० ५ ।। २. सामवेद, छान्दो० उप० ६-८-७ ।। ३. यजुर्वेद-बृह० उप० १-४-१०॥ ४. अथर्ववेद-मां० उप० २॥ ५. आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो
वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्व विदितम्"-बृहदारण्यकोपनिषद्, २-४-५॥