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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप सम्यग्दर्शन यथार्थ ज्ञानरूप तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है ।'' भाष्यकार के कथन से इस प्रकार हमें स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन को न्यायसूत्रकार ने तत्त्वज्ञान कह कर अभिप्रेत किया है। यह तत्त्वज्ञान ही भेद ज्ञानरूप सांख्ययोग मतानुसार विवेकख्याति है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन से मोक्ष की प्राप्ति स्वीकृत की है।
. (४) वेदान्तदर्शन .
हमने न्याय-वैशेषिक दर्शन में सम्यक्त्व के स्वरूप का अवलोकन किया । अब हम इस विषय को वेदांतसूत्र में देखें कि यहाँ इन्होंने सम्यक्त्व का क्या स्वरूप निर्धारित किया है ? शंकराचार्य से यह परम्परा चली आ रही है कि वेदांतसूत्र के प्रणेता 'बादरायण है। डॉ. राधाकृष्णन् के अनुसार “ भारतीय परम्परा के अनुसार वेदांतसूत्र । के रचयिता बादरायण व व्यास एक ही व्यक्ति है " । २.
समग्र हिंदूधर्म में चार प्रकार के पुरुषार्थ स्वीकार किये गये हैंधर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । मोक्ष को ही इनमें से श्रेयस्कर माना गया है। मोक्ष का अर्थ है आत्मसाक्षात्कार । उत्तर वेदान्तियों में मोक्ष का स्वरूप बीज रूप से उपनिषद् में द्रष्टिंगत होता है । वैष्णववेदान्तियों की विदेहमुक्ति और शांकर वेदान्तियों की जीवन्मुक्ति का स्वरूप उपनिषद् में दिखाई देता है । .
उपनिषद् में ज्ञान के द्वारा (विद्या) मोक्ष की प्राप्ति स्वीकृत की गई है । अज्ञान (अविद्या) यह बंधन का कारण है। इस प्रकार श्रुति और स्मृति आत्मज्ञान से मोक्ष प्राप्ति स्वीकार करती है। आत्मज्ञान अथवा ब्रह्मभाव वही मोक्ष है । वेदों में स्थान-स्थान पर इसका उल्लेख मिलता है । ऋग्वेद में कहा गया है-"प्रज्ञानम् ब्रह्म" ज्ञान १. अपवर्गोऽधिगन्तव्यस्तस्याधिगमोपायस्तत्त्वज्ञानम् । एवं चतसृभिर्विधाभिः प्रमेयं विभक्त मासेवमानस्याभ्यस्तो भावयतः 'सम्यग्दर्शन' यथाभूतावबो
धस्तत्त्वज्ञानमुत्पद्यते, न्या० भा० । ४-१-६८ ॥ .. २. भारतीय दर्शन, भाग २ पृ० ४२५ ।। ३. बृह उप० IV ४-१४, ईश० उप० ६, मुंडक उप० II २-८, III २-९॥