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अध्याय ३. ' से भिन्न (अविवेकी) का उपभोग बना रहने से आवागमन नहीं छूटता" । पुरुष को बन्धन और मुक्तिस्वभाव से नहीं होते अविवेक से होते हैं । विवेक से सभी दुःखों की निवृत्ति होने पर पूर्णसिद्धि अर्थात् मोक्ष होता है, अन्य से नहीं । “परम्परा से विवेक की सिद्धि होने से मोक्ष श्रुति संभव है" प्रकार में अन्तर संभव न होने से अविवेक ही बंधन है ।
इस प्रकार उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि विवेक से मुक्ति अर्थात् मोक्ष होता है तथा अविवेक से संसार-भ्रमण । ग्रंथ में यह भी कहा गया है कि अविवेक के कारण ही पुरुष अर्थात् आत्मा प्रकृति .(जड़) से सम्पर्क करती है ।
जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन को ही मुक्ति का प्रथम सोपान व आधारशिला कहा है तथा सम्यग्दर्शन के कारण अर्थात् सम्यग्दर्शन के होने पर ही ज्ञान में सम्यक्तता आती है । यहाँ विवेक व सम्यग्दर्शन में साम्यभाव है क्योंकि विवेक होने पर भेद ज्ञान होता है । वैसे जैन-सिद्धांतों में सम्यग्दर्शन के भेद, व्यवहार व निश्चयसम्यक्त्व में भेद ज्ञान को निश्चयसम्यक्त्व कहा गया है । • विवेक को सम्यग्दर्शन मान लेने पर तत्त्वार्थसूत्र का कथन कि .. सम्यग्दर्शन; ज्ञान और चारित्र मोक्षमार्ग है उसी प्रकार यहाँ सांख्यमत १ उपभोगादितरस्य, सांख्यसूत्र, ३-५ ॥
२. नैकान्ततौ बंधमोक्षौ पुरुषस्याविवेकादते । सांख्य सूत्र, ३-७१ ॥ . ई. विवेकान्निशेष दुःखनिवृत्तौ कृतकृत्यता नेतरान्नेतरात् ।
-सांख्य सूत्र, ३-८४ ।। १. पारम्पर्येण तत्सिद्धौविमुक्ति श्रुतिः । सांख्यसूत्र, ६-५८ ॥ ५. (क) प्रकारान्तरासंभवादविवेक एव बन्धः । सांख्यसूत्र, ६-१६ ॥
(ख) सांख्य प्रवचन भाष्य । १-५५ ॥ ६. (क) अविवेकनिमित्तो वा पंचशिखः । सांख्य सूत्र, ६-६८ ॥ (ख) तद्योगोऽप्यविवेकान्न समानत्वम् । सांख्यसूत्र, १-५८ ।। (ग) प्रधानाविवेकादन्याविवेकस्य तद्धाने हानम् । सांख्य सूत्र, १५७ ॥