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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप सम्यग्ज्ञान से अथवा सहभावी अर्थात् मिश्र रूप से अभिप्रेत है इसका हम अवलोकन करेंगे।
ईश्वरकृष्ण विरचित सांख्यकारिका में कहा गया है कि उक्त पच्चीस तत्त्वों के अभ्यास से "मैं (सूक्ष्म शरीर) नहीं हूँ क्योंकि यह मेरा नहीं है । मैं (प्रकृति भी) नहीं हूँ"-इस प्रकार जो ज्ञान उत्पन्न होता है वो संशयरहित होने से विशुद्ध एवं केवल अर्थात् एक होता है।'' यहाँ प्रतीति होती है कि तत्त्वाभ्यास के अनन्तर मैं और मेरे का भेद . ज्ञान होता है कि जो संशयरहित और विशुद्ध होता है । संशयरहित तत्त्वाभ्यास युक्त विवेक को हम सम्यग्दर्शन संज्ञा दे सकते हैं । क्योंकि जैन दर्शन में तत्त्वार्थसूत्र में जो सम्यग्दर्शन का लक्षण दिया गया है कि "तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्” उससे साम्यता लिये हुए है। संशयरहितता तभी संभव है जबकि विश्वास अर्थात् श्रद्धा हो जो कि तत्त्वाभ्यास पर अवलम्बित हो ।
साख्यसूत्र में इसे और स्पष्ट किया है कि-"आत्म-तत्त्व का • अभ्यास करने से-" यह नहीं है, यह नहीं है". (ऐसा विचार करते हुए) त्यागपूर्वक विवेकसिद्धि होती है ।”२ इस सूत्र से. उपरोक्त कथन को पुष्टि मिलती है कि तत्त्वाभ्यास से विवेक सिद्धि होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सम्यग्दर्शन को विवेक संज्ञा से सांख्यदर्शन ने अभिप्रेत किया है। ___यह विवेकख्याति ही पुरुष को (आत्मा को) मोक्ष की ओर ले जाती है और अविवेक से संसार भ्रमण होता है, इसका स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है-"विवेक प्राप्त करने वाले की संसार में आवृत्ति अर्थात् पुनः पुनः आवागमन नहीं होता"-श्रुति बताती है । “विवेकी १. एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम् । ___ अविपर्ययाद विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ।। सांख्यकारिका, का ६४ ॥ २. तत्वाभ्यासान्नेति नेतीति त्यागाद विवेक सिद्धि. । सांख्य सूत्र ३-७५ ।। ३. तत्र प्राप्तविवेकस्यानावृति श्रुतिः । सांख्यसूत्र, १-८३ ॥