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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप अप्रमाद को सूचित करती है । अकषाय की अवस्था समाधि की अवस्था है क्योंकि जब चित्त कषायों से मुक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप में स्थिर होता है तब उसे समाधि सम्पन्न चित्त कहा जाता है । अयोग को प्रज्ञा कह सकते हैं । क्योंकि प्रज्ञा अयोग का कारण है अतः । - श्रद्धा को पांच बलों में प्रथम बल बौद्ध परम्परा में स्वीकार किया है। पांच बल है-श्रद्धाबल, वीर्यबल, स्मृतिबल, समाधिबल और प्रज्ञाबल ।' पांच इन्द्रियों के सदृश ही पांच बल है किन्तु इन्द्रिय
और बल में भेद यह है कि इन्द्रिच तो क्रियाशील होती है. और बल इन्द्रिय की क्रिया का परिणाम' होकर स्थिर या सिद्ध होता है। इन्द्रिय ही बल के रूप में परिणमन करती है। ____ आध्यात्मिक विकास की बौद्ध परम्परा में चार भूमिकाएं मानी गई हैं । विकासक्रम की चार अवस्थाएं ये हैं-स्रोतापन्न, सकृदागामी, आनागामी और अर्हत् ।
१. स्रोतापन्न का अर्थ है-" प्रवाहित होने वाला"। यह प्रवाह निर्वाणगामी होता है। स्रोतापन्न को बुद्ध, धर्म. और संघ में अविचल श्रद्धा होती है । शील सम्पन्न होता है । निर्वाण होने में उसके अधिक से अधिक ७ भव शेष होते हैं।
___२. सकृदागामी-इससे अभिप्राय है केवल एक बार जन्म लेने वाला । इस अवस्था में आस्रव-क्षय करने का प्रबल प्रयत्न होता है । क्लेश जैसे जैसे क्षीण होते जाते हैं वैसे वैसे प्रज्ञाप्रकाश प्रसरता जाता है ।
३. अनागामी-अनागामी से तात्पर्य है पुनः जन्म न लेने वाला । इस अवस्था में वह कर्म का पूर्ण क्षय करता है, वह इहलोक में जन्म नहीं लेता वरन् ब्रह्मलोक में जन्म लेकर निर्वाण प्राप्त करता है । १. महापरिनिब्बाण सुत्त, दीघ निकाय, सामगाम सुत्त म० नि०;
Indian Buddism P. 93 11 २. बुद्धचरित-धर्मानंद कोसंबी, पृ० १११-११२, २०४-२५६ ( "बौद्ध धर्म दर्शन" नगीन जी० शाह से उद्धृत ) ॥