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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
कर्त्ता और भोक्ता है, निश्चित रूप से मोक्ष है और उसका उपाय है यह श्रद्धा करना ये सम्यक्त्व के छः स्थान है । '
अब इनका विवेचन करते हैं
आत्मा अनुभवसिद्ध है, चित्तचैतन्यादि के द्वारा इसे जाना जा सकता है एवं यह ज्ञान दृष्टि द्वारा अवश्य प्रत्यक्ष होता है, इस प्रकार जीव का अस्तित्व सिद्ध होता है ।
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यह आत्मा द्रव्यपेक्षया नित्य है क्योंकि यह उत्पादविनाश रहित है । पूर्वकृत कर्मानुसार पर्याय रूप होने से यह अनित्य है ।
यह आत्मा शुभाशुभकर्मों का कर्त्ता है । ये कर्म वह कषाय और योग द्वारा करता है । कुम्भकार मृत्तिका, दण्ड, चक्र, और चीवर रूप सामग्री से घट निर्माण करता है उसी प्रकार जीव कषाय और योग से कर्म करता है । "
यह आत्मा स्वकृत शुभाशुभकर्मों को भोक्ता है, अन्यकृतकर्म को नहीं भोगता । अन्यथा मोक्ष भी अन्यकृत और अन्ययुक्त हो जायेगा । *
राग, द्वेष, मोह को जीतने पर, निरूपम सुखसंगत, शिव, अरूज, अक्षयपद निर्वाण की प्राप्ति होती है यह निश्चित है । १. अस्थि जिओ तह निश्वो कत्ता भुत्तां यं पुण्णवावाणं अस्थिधुवं निव्वाणं तस्सोवाओ य छट्टाणा || गाथा ५९ ॥ २. आया अणुभवसिद्धो, गम्मइ तह चित्तचेयणाईहिं ।
जीवो अस्थि अवस्लं पच्चक्खो नाणदिट्टीणं || गाथा ६० ।। ३. दव्वट्टयाइ निचो उप्पायविणासवज्जिओ जेणं ।
पुव्वकयाणुसरणओ पज्जाया तस्स उ अणिश्चा || गाथा ६१ ॥ ४. कत्ता सुहासुहाणं कम्माण कसायजोगमाईहिं । मिउदंडचक्कचीवर सामग्गिवसा कुलालुव्व || गाथा ६२ ||
५.
भुंजइ सयंकयाइं परकयभोगे अइप्पसंगो उ ।
अकस्स नत्थि भोगो अन्नह मुक्खेऽवि सो हुजा || गाथा ६३ ।। ६. निव्वाणमखयपयं निरूवमसुहसंगयं सिवं अरुयं । जियरागदोसमोहेहिं भासियं ता धुवं अस्थि || गाथा ६४ ||