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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
अरिहन्त - देवादिको के पूजनीय, सिद्ध-कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त करने वाले, चैत्य - जिनप्रतिमा, श्रुत-सामायिकादि, धर्म- चारित्रधर्म, साधुवर्ग - उस चारित्रधर्म के आधारभूत, आचार्य और उपाध्याय - विशेष गुणों से युक्त, प्रवचन - चतुर्विध संघ, दर्शन सम्यग्दर्शन की इच्छा ।'
अब चतुर्थ त्रिशुद्धि अधिकार कहते हैं
मन की, वचन की और काया की शुद्धि से सम्यक्त्व की शुद्धि होती है। जिन और जिनमत बिना सकल हम्पदार्थ के असार है. यह विचारना मनशुद्धि है ।
वचन शुद्धि
तीर्थंकर-प र-पद सेवन से जो नहीं हुआ, वह अन्य से भी नहीं होगा ऐसा वचन बोलना यह वचनशुद्धि है ।
कायशुद्धि
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छेदन किये जाने पर, भेदन किये जाने पर, पीड़ित किये जाने पर, जलाये जाने पर भी जो जिनेश्वर को वर्जकर अन्य देवों को नमस्कार नहीं करता उसके कायशुद्धि है ।"
१. अरिहंता विहरता, सिद्धाकम्मक्खया सिवं पत्ता ।
पडि माओ चेइयाई, सुयंति सामाइयाईयं || गाथा १८ || धम्मो चरित्तधम्मो, आहारो तस्स साहुवग्गत्ति । आयरिय उवज्झाया, विसेस गुणसंगया तत्थ || गाथा १९ ।। पवयणमसेस संघ, दंसणमिच्छत्ति इत्थं सम्मत्तं ।
विणओ दसहमेसिं, कायव्वो होइ एवं तु ॥ गाथा २० || २. मणवायाकायाणं सुद्धी संमत्तसोहिणी तत्थ |
मणसुद्धी जिण जिणमयवज्जमसारं मुणइ लोयं || गाथा २५ ।। ३. तित्थंकरचरणाहणेण जं मज्झ सिज्झइ न कजं ।
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पत्थेमि तत्थ नन्नं देववसेसेहिं वयसुद्धी || गाथा २६ ।। ४. छितो भिजतो पीलिज्जतो यज्झमाणोऽवि ।
जिणवज्जदेवयाणं न नमइ जो तस्स तणुसुद्धी । वही, गाथा २७ ।।