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अध्याय २.. प्रकार वहाँ भजनीयपना है। उनमें से तीनों कर्मों के उदयाभाव का नाम सर्वोपशम है और सम्यक्त्व देशघाति प्रकृति के स्पर्धकों का उदय देशोपशम कहलाता है।' सम्यक्त्व के प्रथम लाभ के अनंतर पूर्व पिछले समय में मिथ्यात्व ही होता है। अप्रथम लाभ के अनन्तर पूर्व पिछले समय में मिथ्यात्व भजनीय है।
सम्यक्त्व की भूमिका का निर्देश कर अब अर्थ का निरूपण करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि- .
सम्यग्दृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचन का नियम से श्रद्धान करता है। तथा स्वयं न जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है। .
“ सम्यक्त्व का लक्षण पूर्वकथित श्रद्धान के साथ यहाँ असद्भूत अर्थ का भी सम्यग्दृष्टि जीव गुरुवचन को ही प्रमाण करके स्वयं नहीं जानता हुआ श्रद्धान करता है। यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इस गाथासूत्र के वचन द्वारा आज्ञा भी सम्यक्त्व का लक्षण कहा गया ऐसा ग्रहण करना चाहिये” यह टीकाकार का कथन है ।
४. सन्मति प्रकरण (श्वेताम्बर) .. सन्मति प्रकरण आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की कृति है । इनका
समय लगभग चतुर्थ शताब्दी माना जाता है । १. जइ वेदगपाओग्गकालभंतरे चेव सम्मत्तं पडिवजइ तो देसोवसमेण
अण्णहा वुण सम्वोवसमेण पडि वजइत्ति तत्थ भयणिजत्तदंसणादो । तत्थ सव्वोयसमो णाम तिण्हं कम्माणमुदयाभावो सम्मतदेसघादिफ
याणमुदओ देसोवसमो त्ति भण्णदे । वही, पृ० ३१६-३१७ ।। २. सम्मत्तपढमलंभस्साणंतरं पच्छदो य मिच्छत्त । लंभस्स अपढमस्स दु भजियव्यो पच्छदो होदि ।।।
-गाथा १०५, पृ० ३१७ ॥ ३. सम्माइट्ठी सद्दहदि पवयणं णियमसा दु उवइटें ।
सदहदि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा। गाथा १०७, पृ. ३२१ ।। ४. एदेण आणासम्मत्तस्त लकखणं परुविदमिदि घेत्तव्ध ॥ वही ।।