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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप - अब दर्शनमोहनीय का बन्ध मिथ्यात्व के निमित्त से ही होता है, उसके बिना शेष कारणों से दर्शनमोहनीय का बन्ध नहीं होता इस का ज्ञान कराने के लिए आगे अवतरण देते हैं कि
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहनीय का अबन्धक होता है। तथा वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि तथा उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि भी दर्शन-मोहनीय का अबन्धक होता है।' इस गाथा में बतलाया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव दर्शनमोहनीय का बन्ध नहीं करता । अब उसके काल का प्रमाण देते हुए कथन किया है कि-सभी दर्शनमोहनीय कर्मों का उदयाभाव रूप उपशम होने से वे अन्तर्मुहूर्तकाल तक उपशांत रहते हैं। उसके बाद तीनों में से किसी एक कर्म का नियम से उदय होता है। ..
इस प्रकार सम्यक्त्व का प्रथम लाभ सर्वोपशम से ही होता है तथा विप्रकृष्ट जीव के द्वारा भी सम्यक्त्व का लाभ सर्वोपशम से ही होता है। किंतु शीघ्र ही पुनः पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव सर्वोपशम व देशोपशम से भजनीय है।
जीव को सर्वप्रथम उपशमसम्यक्त्व ही होता है। उसके पश्चात् पुनः जब सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तब यह विकल्प से होता है। सर्वोपशम व देशोपशम के लिए “ जयधवला"-टीकाकार का कथन
___यदि वह वेदक प्रायोग्यकाल के भीतर ही सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तो देशोपशम से अन्यथा सर्वोपशम से प्राप्त करता है। इस १. सम्मामिच्छाइट्ठी दस णमोहस्सऽबंधगो होइ ।
वेदयसम्माइट्ठी खीणो वि अबंधगो होइ ।। गाथा १०२, पृ० ३१३ ।। २. अंतोमुहुत्तमद्धं सव्वोवसमेण होइ उवसंतो ।
ततो परमुदयो खलु तिषणेक्कदरस्स कम्मस्स ।। गाथा १०३, पृ. ३१४ ।। ३. सम्मत्तपढमलंभो सव्वोवसमेण तह विय ठेण । ..
भजियव्वो य अभिक्ख सव्वोवसमेण देसेण || गाथा १०४, पृ: ३१६ ॥