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अध्याय.२
१२३ वाले अपूर्व परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं। इस में दिये गये अपूर्व विशेषण से अधःप्रवृत्त-परिणामों का निराकरण किया है ऐसा समझना चाहिये क्योंकि अधःप्रवृत्त में होने वाले परिणामों में अपूर्वता नहीं पाई जाती है।' टीकाकार इस पर हुई शंका निर्देश करते हैं किअपूर्व शब्द पहले कभी नहीं प्राप्त हुए अर्थ का वाचक है, असमान अर्थ का वाचक नहीं है, इसलिए यहाँ पर अपूर्व शब्द का अर्थ समान या विसदृश नहीं हो सकता है ? इस पर समाधान किया-ऐसा नहीं है, क्योंकि पूर्व और समान ये दोनों शब्द एकार्थवाची हैं, इसलिये अपूर्व और असमान का एक अर्थ है। ऐसे अपूर्व परिणामों में जिन जीवों की शुद्धि प्रविष्ट हो गई है, उन्हें अपूर्वकरण प्रविष्ट-शुद्धि जीव कहते हैं ।
___ यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि वे अपूर्वकरणरूप परिणामों में विशुद्धि को प्राप्त करने वाले कौन होते हैं ?
इसका समाधान किया कि वे संयत ही होते हैं, अर्थात् संयतों में ही अपूर्वकरण गुणस्थांन वाले जीवों का सद्भाव होता है और
उन संयतों में उपशमक और क्षपक जीव होते हैं । .: सम्यग्दर्शन की अपेक्षा क्षपक के क्षायिक भाव होता है, क्योंकि 'जिसने दर्शनमोहनीय का क्षय नहीं किया वह क्षपक श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता है और उपशमक के औपशमिक या क्षायिक भाव होता है, क्योंकि जिसने दर्शनमोहनीय का उपशम अथवा क्षय नहीं किया . है, वह उपशमश्रेणी पर नहीं चढ सकता है ।'
- इस प्रकार अपूर्वकरण गुणस्थान का कथन करके अब आगे के गुणस्थान का सूत्रकार निरूपण करते हैं कि१ वही, पृ० १७९-१८० ॥ २. वही, पृ० १८० ॥ ३. वही, पृ० १८१ ॥ १. वही, पृ० १८२-१८३ ॥