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________________ १२२ . जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप __ जिन का संयम प्रमाद सहित नहीं होता है उन्हें अप्रमत्त संयत कहते हैं अर्थात् संयत होते हुए जिन जीवों के पन्द्रह प्रकार का प्रमाद नहीं पाया जाता है, उन्हें अप्रमत्त-संयत कहते हैं।' यहाँ भी शंका. कार की शंका का उल्लेख किया है कि बाकी के सम्पूर्ण संयतों का इसी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिए शेष संयतगुणस्थानों का अभाव हो जायगा ? इस का टीकाकार समाधान करते हुए कहते हैं कि ऐसा नहीं है, क्योंकि जो आगे चलकर प्राप्त । होनेवाले अपूर्वकरणादि विशेषणों से विशेषता अर्थात् भेद को प्राप्त नहीं होते हैं और जिन का प्रमाद नष्ट हो गया है ऐसे संयतों का ही यहाँ पर ग्रहण किया है। इसलिए आगे के समस्त संयतगुणस्थानों का इस में अन्तर्भाव नहीं होता है। . अब आगे चारित्रमोहनीय का उपशम करने वाले या क्षपण करने वाले गुणस्थानों में से प्रथम गुणस्थान के निरूपण के लिए आगे का सूत्र कहते हैं कि. अपूर्वकरण-प्रविष्ट-शुद्धि संयतों में सामान्य से उपशमक और क्षपक ये दोनों प्रकार के जीव होते हैं। जो पूर्व अर्थात् पहले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इस का तात्पर्य यह है कि नाना जीवों की अपेक्षा आदि से लेकर प्रत्येक समय में क्रम से बढ़ते हुए असंख्यातलोकप्रमाण परिणाम. वाले इस गुणस्थान के अन्तर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवों को छोड़कर अन्य समयवर्ती जीवों के द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं । अर्थात् विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणामों से भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में होने १. प्रमत्तसंयताः पूर्वोक्तलक्षणाः, न प्रमत्तसंयताः अप्रमत्तसंयताः पंचदश. प्रमादरहित संयता इति यावत् । वही ॥ २. वही, पृ० १७८-१७९ ॥ ३. अपुवकरण-पविट्ठ-सुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा ॥ १६ ॥ -पृ० १७९ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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